दो चार कहीं लगते पौधे , | ||
रोज कटते हैं पेड़ हज़ार | | ||
वन झाड़ी का होत सफाया , बाग कानन का मिटता नाम | | ||
कहीं पेंड नज़र नहीं आते , कहाँ जा करे राही विश्राम | | ||
खग जाकर कहाँ करे कलरव , मिले ना कही जब फलाहार | | ||
घर सजते नकली फूलों से , जभी आये कोई त्यौहार | | ||
दो चार कहीं लगते पौधे , | ||
रोज कटते हैं पेड़ हज़ार | | ||
कहीं सड़क वन बाग़ उजाड़े , कहीं मानव करता वन खाक | | ||
हर तरफ तरुवर सहे आफत , आँधीं तूफ़ाँ करता मजाक | | ||
वन झाड़ का होता सफाया , घर ही बनते जाते हज़ार | | ||
कम हैं खेत बढ़ी आबादी , वन झाड़ काटें हो लाचार | | ||
दो चार कहीं लगते पौधे , | ||
रोज कटते हैं पेड़ हज़ार | | ||
कहीं पौध जिसने ना रोपी , फूल फलों को कहें बेकार | | ||
बाग़ बेचकर खेत बनाये , माँ बाप का था जो आधार | | ||
फल फूल कहीं मिले कैसे , पौधों का जब मिटे अधिकार | | ||
जब हर लोग लगायें पौधे , तब बढे हरा भरा संसार | | ||
दो चार कहीं लगते पौधे , | ||
रोज कटते हैं पेड़ हज़ार |
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Comment
आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय
बहुत ही सुन्दर रचना । बधाई।
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , रचना पर उत्साहित करती प्रतिक्रिया और सुझाव के लिए आपका हार्दिक आभार | मैं सुधार करने की कोशिश करूँगा |
सादर
आदरणीय शुरेश कुमार कल्याण जी , तहे दिल से आभार आपका
सादर
आदरणीया श्याम नाराइन भाई , पर्यावरण संरक्षण पर अच्छा गीत रचना आपने , दिल से बधाइयाँ आपको । बस मात्रिकता और कलों का निरवहन मे कुछ कमियाँ लगीं , इसी लिये लय कहीं कहीं बाधित हैं ।
आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय |
मेरी रचना को प्रोत्साहन देने के लिए तहे दिल धन्यवाद ..सादर |
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