2122 2122 2122 2122
शोध पेपर इक कहानी ऐसी बनते जा रहे हैं
जिसमे नित नव कल्पना के पंख लगते जा रहे है
सारी दुनिया के रसायन आज हैराँ सोचकर ये
हम जहाँ जुड़ ही नहीं सकते थे जुड़ते जा रहे हैं
आदमी कब व्याधियों से मुक्त होगा रब ही जाने
शोध', चूहे -खरहों के पर प्राण हरते जा रहे हैं
मोतियों से दांत दिखला पेस्ट जो करते प्रचारित
नीम की दातून से निज दांत घिसते जा रहे हैं
रोज अखबारों को पढ़कर दे रहे हैं मशविरा सब
अब चिकित्सक मुल्क के हर घर में बनते जा रहे है
क्यूँ न दीवाली मनेगी नित दवा की कंपनी में
जब दवाओंसे ही ही सबके पेट भरते जा रहे हैं
जंगलो को पार जिसने था किया बेख़ौफ़ होकर
उसके बच्चे पाठशाला डरते डरते जा रहे है F64
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय आशुतोष भाई , वहुत अच्छी गज़ल कही है , आज की उपचार पद्धति और डाक्ट्ररों कर अच्छा व्यंग्य किया है । हार्दिक बधाई आपको ।
मोतियों से दांत दिखला पेस्ट जो करते प्रचारित
नीम की दातून से निज दांत घिसते जा रहे हैं -- इस शेर मे बात आप पूरी कह नही पाये हैं ऐसा लगता है , न तो बात पक्ष मे है न ही विपक्ष में ।
आदरनीय सुरेश जी रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रीय के लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
आदरणीय आशुतोष जी वर्तमान को जीती इस सटीक ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।
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