For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ (ग़ज़ल 'राज')

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

फिसलकर नींद से टूटे हुए सपने कहाँ रक्खूँ

ज़फ़ा की धूप में सूखे हुए गमले कहाँ रक्खूँ

 

इबादत में वजू करती मुक़द्दस नीर  से जिसके  

पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ  

 

परिंदे उड़ गए अपनी अलग दुनिया बसाने को

बनी मैं ठूँठ अब उस नीड के तिनके कहाँ रक्खूँ

 

भरा है तल्खियों से दिल कोई कोना नही ख़ाली

तेरी यादों के वो बिखरे हुए लम्हे कहाँ रक्खूँ

 

तुझे चेह्रा दिखाने पर तेरे पत्थर ने जो तोड़ा  

सिसकते आईने के  वो बता टुकड़े  कहाँ रक्खूँ

 

हमारे वस्ल की रंगी फिज़ा  इतना बता जाना  

 ख़जाँ  की मार से पीले हुए पत्ते कहाँ रक्खूँ

 

तेरे लिक्खे हुए जो हर्फ़ मेरा मुँह चिढाते हैं  

खतों के वो  तेरे जलते हुए सफ्हे कहाँ रक्खूँ

---------------------

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Views: 1285

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Samar kabeer on August 22, 2016 at 3:57pm
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,बहुत ही उम्दा और मुरस्सा ग़ज़ल हुई है, शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
पांचवें शैर में "किरचे"चूंकि बहुवचन है इसलिये 'की'की जगह "के"करना मुनासिब होगा,वैसे 'किरच'का बहुवचन "किरचें"सही है मगर "किरचे"भी चल सकता है ।
आख़री शैर में 'ख़त'का बहुवचन "खतूत" होता है,
"खतूतों" नहीं देख लीजियेगा ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 22, 2016 at 9:51am

आह्ह्ह्ह मजा  गया मिथिलेश भैया सर्वप्रथम वो भी इतनी विस्तृत शेर दर शेर समीक्षा पढके | ऐसी  प्रतिक्रिया से कौन रचनाकार उत्साहित ऊर्जित न होगा |तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 21, 2016 at 10:16pm

आदरणीया राजेश दीदी, बहुत ही शानदार ग़ज़ल कही है आपने. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं-

फिसलकर नींद से टूटे हुए सपने कहाँ रक्खूँ

ज़फ़ा की धूप में सूखे हुए गमले कहाँ रक्खूँ................. वाह वाह वाह शानदार मतला 

 

इबादत में वजू करती मुक़द्दस नीर से जिसके 

पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ  ............. इस शेर को ऐसे गुनगुनाना मुझे अधिक अच्छा लगा.

 

परिंदे उड़ गए अपनी अलग दुनिया बसाने को

बनी मैं ठूँठ अब उस नीड के तिनके कहाँ रक्खूँ............... क्या खूब शेर हुआ है दीदी.... दाद ही दाद 

 

भरा है तल्खियों से दिल कोई कोना नही ख़ाली

तेरी यादों के वो बिखरे हुए लम्हे कहाँ रक्खूँ........................ कमाल 

 

तुझे चेह्रा दिखाने पर तेरे पत्थर ने जो तोड़ा  

सिसकते आईने की वो बता किरचे कहाँ रक्खूँ.....................अद्भुत 

 

हमारे वस्ल की रंगी फिज़ा  इतना बता जाना  

 ख़जाँ  की मार से पीले हुए पत्ते कहाँ रक्खूँ....................... क्या ही खूब कहा है दीदी.... हासिल-ए-ग़ज़ल

 

तेरे लिक्खे हुए जो हर्फ़ मेरा मुँह चिढाते हैं  

खुतूतों के तेरे जलते हुए सफ्हे कहाँ रक्खूँ.......................... वाह वाह वाह 

दीदी बहुत दिनों बाद मंच पर सक्रीय हुआ हूँ और इस दिलजीतू ग़ज़ल को गुनगुनाने के आनंद से मुग्ध हूँ. बहुत बहुत बधाई. और आभार इस शानदार ग़ज़ल का पाठक बनाने के लिए. नमन 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 (विषय मुक्त)
"जी, ऐसा ही होता है हर प्रतिभागी के साथ। अच्छा अनुभव रहा आज की गोष्ठी का भी।"
yesterday
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 (विषय मुक्त)
"अनेक-अनेक आभार आदरणीय शेख़ उस्मानी जी। आप सब के सान्निध्य में रहते हुए आप सब से जब ऐसे उत्साहवर्धक…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 (विषय मुक्त)
"वाह। आप तो मुझसे प्रयोग की बात कह रहे थे न।‌ लेकिन आपने भी तो कितना बेहतरीन प्रयोग कर डाला…"
yesterday
अजय गुप्ता 'अजेय commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - यहाँ अनबन नहीं है ( गिरिराज भंडारी )
"ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें आदरणीय गिरिराज जी।  नीलेश जी की बात से सहमत हूँ। उर्दू की लिपि…"
yesterday
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"धन्यवाद आ. अजय जी "
Saturday
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 (विषय मुक्त)
"मोर या कौवा --------------- बूढ़ा कौवा अपने पोते को समझा रहा था। "देखो बेटा, ये हमारे साथ पहले…"
Saturday
अजय गुप्ता 'अजेय commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (कुर्ता मगर है आज भी झीना किसान का)
"जी आभार। निरंतर विमर्श गुणवत्ता वृद्धि करते हैं। अपनी एक ग़ज़ल का मतला पेश करता हूँ। पूरी ग़ज़ल भी कभी…"
Saturday
Nilesh Shevgaonkar commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (कुर्ता मगर है आज भी झीना किसान का)
"क़रीना पर आपके शेर से संतुष्ट हूँ. महीना वाला शेर अब बेहतर हुआ है .बहुत बहुत बधाई "
Saturday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 (विषय मुक्त)
"हार्दिक स्वागत आपका गोष्ठी और रचना पटल पर उपस्थिति हेतु।  अपनी प्रतिक्रिया और राय से मुझे…"
Saturday
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-122 (विषय मुक्त)
"आप की प्रयोगधर्मिता प्रशंसनीय है आदरणीय उस्मानी जी। लघुकथा के क्षेत्र में निरन्तर आप नवीन प्रयोग कर…"
Saturday
अजय गुप्ता 'अजेय commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"अच्छी ग़ज़ल हुई है नीलेश जी। बधाई स्वीकार करें।"
Saturday
अजय गुप्ता 'अजेय commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (कुर्ता मगर है आज भी झीना किसान का)
"मौसम का क्या मिज़ाज रहेगा पता नहीं  इस डर में जाये साल-महीना किसान ka अपनी राय दीजिएगा और…"
Saturday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service