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ग़ज़ल - गुड़ मिला पानी पिला महमान को ( गिरिराज भंडारी )

गुड़ मिला पानी पिला महमान को

2122    2122    212

********************************

तब नज़र इतनी कहाँ बे ख़्वाब थी

और ऐसी भी नहीं बे आब थी 

 

नेकियाँ जाने कहाँ पर छिप गईं

इस क़दर उनकी बदी में ताब थी

 

गैर मुमकिन है अँधेरा वो करे

बिंत जो कल तक यहाँ महताब थी

 

बे यक़ीनी से ज़ुदा कुछ बात कह

ठीक है, चाहत ज़रा बेताब थी

 

डिबरियों की रोशनी, पग डंडियाँ

थीं मगर , बस्ती बड़ी शादाब थी

 शादाब- हराभरी,खुश

गुड़ मिला पानी पिला महमान को

उस तमद्दुन की अदा नायाब थी

तमद्दुन --आचार विचार,संस्कृति

अब धुएँ से भर गई है जो फ़ज़ा

थी जिया उसमें , कभी सीमाब थी

सीमाब - पारा  ( जैसे चमकीला )

***************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 23, 2016 at 11:33am

आदरनीय सुरेश भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 23, 2016 at 11:33am

आदरनीया कल्पना जी , गज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका हृदय से आभार ।

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on August 23, 2016 at 10:49am
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी बहुत ही सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई ।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 23, 2016 at 9:42am
यक़ीनी से ज़ुदा कुछ बात कह
ठीक है, चाहत ज़रा बेताब थी

डिबरियों की रोशनी, पग डंडियाँ
थीं मगर , बस्ती बड़ी शादाब थी
शादाब- हराभरी,खुश
गुड़ मिला पानी पिला महमान को
उस तमद्दुन की अदा नायाब थी

बहुत खूब आदरणीय । बधाई ।

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