हे पार्थ के सारथी, हे जसुमति के लाल
हरने जन की पीर अब , फिर आओ गोपाल
ध्वस्त किया था कंस का ,इक दिन तुमने मान
निडर हो गया कंस अब ,और हुआ बलवान
घूम रहा है ओढ़ कर ,सज्जनता की खाल
हरने जन की पीर अब , फिर आओ गोपाल
पाँचाली के चीर का ,किया खूब विस्तार
नयनों में भर नीर फिर ,तुमको रही पुकार
अंध सभा में ठोकता , दुःशासन फिर ताल
हरने जन की पीर अब ,फिर आओ गोपाल
अर्जुन का रथ थाम कर ,दिया कर्म सन्देश
पाँसे अब है फेंकता ,शकुनि बदल कर वेश
हरे गेरुए मोहरे , जमी द्यूत चौपाल
हरने जन की पीर अब ,फिर आओ गोपाल
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीया अलका चंगा जी
बेहद खूसूरत दोहा गीत .आदरणीया प्रतिभा पांडे जी ..जय श्री कृष्णा
हार्दिक आभार आदरणीय सुरेश जी
प्रयास पर आकर उत्साहवर्धन करने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी ...सादर
बढ़िया दोहे ============= वाह
प्रयास पर उपस्थित होकर उत्साहवर्धन करने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर जी ..सादर
जी आदरणीय गिरिराज जी , आपका सुझाव उत्तम है ,परिमार्जन हेतु प्रस्तुत करती हूँ , इसी प्रकार उत्साह बढ़ाते रहिएगा ..आपका हार्दिक आभार ...सादर
आपको ये प्रयास अच्छा लगा मेरा लिखना सफल हुआ ,आका हार्दिक आभार आदरणीया राजेश जी
आदरणीय मनन कुमार जी , सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार
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