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बाज आता नहीं सिखाने से-ग़ज़ल

2122 1212 22

जाके कह दीजिए ज़माने से
वक़्त छीने कमाने खाने से

यूँ समस्याएं खत्म क्या होंगी
सिर्फ़ इल्ज़ाम भर लगाने से

काम सरकार ग़र नहीं करती
किसने रोका है कर दिखाने से

बैठ टेली विज़न के आगे यूँ
दिन बहुर जाएगा न गाने से

खुद को बदले बिना न रुक सकता
पाप बस शोर यूँ मचाने से

मुद्दे ऐसे तो हल नहीं होंगे
राग-ढपली अलग बजाने से

देश खुद ही प्रगति के पथ होगा
भार हर एक के उठाने से

मानता ही नहीं कभी पंकज
बाज आता नहीं सिखाने से

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 28, 2016 at 9:03pm
आदरणीय समर सर सादर प्रणाम। आगे से मैं आपको समर सर नहीं लिखना चाह रहा, इसमें फॉर्मेलिटी सी लगती है, मैं आपको "गुरु जी" कहूँगा।

आपके सुझाव और आपसे मिलने वाला स्नेह ही यात्रा पथ पर आबद्ध चलने की शक्ति देता है।

सुझाये गए मिसरे को देखता हूँ।
Comment by Ashok Kumar Raktale on August 28, 2016 at 4:58pm

आदरणीय पंकज कुमार मिश्र जी सादर, बहुत खूबसूरत गजल कही है. बहुत-बहुत मुबारकबाद कुबूलें. सादर.

Comment by Samar kabeer on August 28, 2016 at 3:14pm
जनाब पंकज कुमार मिश्रा जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।

सातवें शैर का ऊला मिसरा लय में नहीं लगता,देखियेग ।

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