" हैलो.." ट्रीन-ट्रीन की घंटी बजते ही स्नेहा फोन उठाते हुए बोली
" हैलो स्नेह! कैसी हो. बहुत व्यस्त हो क्या." उधर से बडे भैया की आवाज थी.
" अरे! भैया व्यस्त ही नही अस्तव्यस्त भी हूँ."
" क्यो क्या हुआ..."
"क्या बताऊँ समझ नही पा रही. तुमने जो रिश्ता सुझाया था ना अपनी भांजी ले लिए कहती है प्रोफ़ाइल तो अच्छा है. मगर पाँच साल बडा है वो मेरे सामने अंकल लगेगा. आजकल तो एक साल मे ही गेनेरेशन गेप आ जाता है माँ. अब तुम ही बताओ मैं तो थक गई हूँ समझा कर भी और..."
" बहना! इधर भी यही हाल है. सोमेश को कोई भी लड़की दिखाओ कहता है पापा! मुझसे पाँच- छह साल छोटी हो वरना शादी के एकाध साल मे ही वो आंटी दिखने लगेगी."
"सच! बहुत मुश्किल है दादू इस पीढी को समझाना."
"कोई ना छोटी संक्रमण काल है ये हमारी पीढी का."
ना तो पुराना सहेजा जा रहा और ना ही नई पीढी के साथ सामंजस्य बैठ रहा.
मौलिक एंव अप्रकाशित
Comment
अंतिम पंक्ति के द्वारा कमाल की बात कहलवा दी आपने आदरणीया नयना जी, बहुत बधाई इस रचना के सृजन हेतु|
आ.प्रतिभा दीदी आपने बिलकूल सही कहा हम जरुरतो के हिसाब से अपने मूल्य बदलते जा रहे है.आपका हौसला अफ़जाई के लिए आभार
आ.उस्मानी जी तहेदिल से शुक्रिया आपका. संपादन की तृटियो को आगे की रचनाओ मे ज्यादा ध्यान से सुधारने का प्रयत्न करूंगी. आपने बहूत ही सार्थक हायकू रचे है.
दर-असल सबसे ज्यादा भ्रम की स्थिती मे हमारी पीढी है जो आधुनिक(प्रगतिशील) तो कहलाना चाहती है किंतू फ़िर गिरते मूल्यों को देख फ़िर एक कदम पिछे खिंच लेती है, बहरहाल आपने रचना को दिल से समय दिया इस हेतू पुन: आभार
आ.राजेश दीदी आपने रचना को सराह कर मेरा उत्साहवर्धन किया है.आभार आपका
आ.समर कबीर साहेब सलाम वाले कूम . रचना पर पहली उपस्थिती के लिए दिल से शुक्रिया.
तथाकथित आधुनिक समाज की सोच अधकचरी होती जा रही है अपनी सहूलियतों के हिसाब से जीवन मूल्य बदले जा रहे हैं ... कथा का शिल्प कसा हुआ है और अपना मर्म संप्रेषित करने में पूरी तरह सफल है .... बधाई प्रेषित है आपको आदरणीया नयना जी
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