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नव गीत ....छा रहे बदल गगन में

नव गीत

छा रहे बादल गगन में
जा रहे या आ रहे हैं?

टिपटिपाती चपल वर्षा 
हो रही धरती सुगन्धित
आज आजाने को घर में
क्या पता है कौन बाधित?
देर से पंछी गगन में
पंख-ध्वज फहरा रहे हैं

श्याम अलकें गिर रही है
बैठ कांधे खिल रही है
पवन बैरन बाबरी सी
झूम गाती चल रही है
आँख में कजरा चमकता 
मेघ नभ गहरा रहे हैं

सारिका की टेर सुन तरु 
गुनगुनाने लग पड़े हैं 
धूप की फिर से चिरौरी
भास्कर करने लगे हैं
छाँव में लेटा है सपना 
मिलन पल इतरा रहे हैं

आभा
.

 अप्रकाशित  एवं  मौलिक 

Views: 504

Comment

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Comment by Abha saxena Doonwi on September 10, 2016 at 7:29am

आदरणीय Saurabh Pandey जी नमस्कार,

आपके द्वारा दिए गए सुझाव पर मैं ध्यान देने की कोशिश करूंगी ..इसी तरह स्नेह भाव बनाये रखियेगा ....आभार आपका 

Comment by Abha saxena Doonwi on September 10, 2016 at 7:27am

आदरणीय गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी नमस्कार,

आपने मेरे इस गीत की प्रशंसा की है मुझे बहुत अच्छा लगा ...आप इसी तरह स्नेह भाव बनाये रखियेगा ..आभार आपका ...

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 30, 2016 at 8:31pm

आ०   गीत बड़ा मधुर है .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 30, 2016 at 2:39am
आदरणीया आभा जी, आपकी प्रस्तुति क् लिए हार्दिक धन्यवाद और शुभकामनाएँ।

एक बात अवश्य गाँठ बाँध लें। हर नवगीत भले ही गीत हो, लेकिन हर गीत नवगीत नहीं होता। नवगीत केवल नये प्रकार के या नये-नये गीत नहीं होते। इनका विधान और इनका प्रकार विशिष्ट हुआ करता है।

आदरणीया, आपकी प्रस्तुति नवगीत न हो कर एक गीति-प्रतीति है। यानी, गीत जैसी रचना है।

शुभेक्षाएँ
Comment by Samar kabeer on August 29, 2016 at 10:58pm
मोहतरमा आभा जी आदाब,बहुत उम्दा नवगीत लिखा आपने मौसम भी बारिश का है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

//पवन बैरन बाबरी सी//

या "बावरी सी"

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