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टूटती सारी हदें सड़कों पे अब ।
लुट रहीं हैं इज्जतें सड़को पे अब ।।
ऐ मुसाफिर देख जंगल राज ये ।
फिर खड़ी है जहमतें सड़कों पे अब ।।
हैं बहुत दागी यहां की खाकियां ।
बिक रही है हरकतें सड़को पे अब ।।
हो चुके हैं राज में गुंडे बहुत ।
लग रहीं हैं महफ़िलें सड़कों पे अब ।।
दिख रही इंसानियत की बेबसी ।
हर तरह की सोहबतें सड़कों पे अब ।।
बाप जिन्दा लाश बनकर रह गया ।
मिट गयीं सब अस्मतें सड़को पे अब ।।
दर्द माँ बेटी का सुनता कौन है ।
हैं सियासी तोहमतें सड़कों पे अब ।।
हुक्मरां को सिर्फ दौलत का जुनूं।
बंट रही हैं रहमतें सड़कों पे अब ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरनीय नवीन भाई , अच्छी सामयिक गज़ल कही आपने , हार्दिक बधाइयाँ आपको गज़ल के लिये ।
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