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ग़ज़ल : टूटती सारी हदें सड़कों पे अब

212 22 12 22 12
टूटती सारी हदें सड़कों पे अब ।
लुट रहीं हैं इज्जतें सड़को पे अब ।।

ऐ मुसाफिर देख जंगल राज ये ।
फिर खड़ी है जहमतें सड़कों पे अब ।।

हैं बहुत दागी यहां की खाकियां ।
बिक रही है हरकतें सड़को पे अब ।।

हो चुके हैं राज में गुंडे बहुत ।
लग रहीं हैं महफ़िलें सड़कों पे अब ।।

दिख रही इंसानियत की बेबसी ।
हर तरह की सोहबतें सड़कों पे अब ।।

बाप जिन्दा लाश बनकर रह गया ।
मिट गयीं सब अस्मतें सड़को पे अब ।।

दर्द माँ बेटी का सुनता कौन है ।
हैं सियासी तोहमतें सड़कों पे अब ।।

हुक्मरां को सिर्फ दौलत का जुनूं।
बंट रही हैं रहमतें सड़कों पे अब ।।

--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 6, 2016 at 10:36am

आदरनीय नवीन भाई , अच्छी सामयिक गज़ल कही आपने , हार्दिक बधाइयाँ आपको गज़ल के लिये ।

Comment by Samar kabeer on September 3, 2016 at 3:27pm
आपकी इस ग़ज़ल पर मैने इस्लाह कहाँ की भाई,जहाँ की थी वहां आपने ध्यान नहीं दिया ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on September 3, 2016 at 1:33pm
आदरणीय कबीर सर तहेदिल से आभार । मेरी ग़ज़ल पर आपकी इस्लाह बहुत कीमती है ।
Comment by Samar kabeer on September 3, 2016 at 1:29pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई,बधाई स्वीकार करें ।

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