2122 2122 2122 212
एक दिन है शादमानी की लहर का जागना
रोज़ ही फिर देखना है चश्मे तर का जागना
देख लो तुम भी मुहब्बत के असर का जागना
चन्द लम्हे नींद के फिर रात भर का जागना
चाँद जागा आसमाँ पर, खूब देखे हैं मगर
अब फराहम हो ज़मीं पर भी क़मर का जागना
बाखबर तो नींद में गाफ़िल मिले हैं चार सू
पर उमीदें दे गया है बेखबर का जागना
सो गये वो एक उखड़ी सांस ले कर , छोड़ कर
और हमको दे गये हैं उम्र भर का जागना
अधमरी सी पैर तुरबत में दिये जो थी पड़ी
वज़्ह तुमको ख़ुद कहेगी उस ख़बर का जागना
जब चला तन्हा तो राहें काटतीं थीं खार बन
पर दिलाशा दे रहा था हम सफर का जागना
लपलपा कर बुझ गया दीपक, न देखा फिर भी वो
भोर की अरुणाइयों में कोई घर का जागना
रात को जो रात समझे कौन ऐसा है बचा
कोई जानेगा नहीं क्या अब सहर का जागना
खो गई बीनाई मेरी ताब से महताब की
हाय ! ऐसे बेरहम तीर –ए- नज़र का जागना
क्या करूँ मै याद करके, था गुमाँ जो, है गुमाँ
“ वो मिरी ताज़ीम में दीवारो दर का जागना “
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
वाहह आदरणीय वाहह बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है नमन है
वाह वाह ! टंकण त्रुटियाँ ठीक कर लें.
आदरणीय गिरिराज भाई, कल इलाहाबाद के अदबघर में आयोजित तरही मुशायरे में करीब ४० शुअरा में से आधे ने इसी मिसरे पर ग़ज़लें कहीं थीं. समाँ बँध गया था.
शुभ-शुभ
मोहतरम जनाब गिरिराज साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है , शेर दर शेर दाद और मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ---शेर नंबर 9 में तक़ाबुले रदीफेंन को दोष आरहा है ,देख लीजियेगा
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