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जनाब सतविंदर कुमार साहिब , ग़ज़ल में अच्छे खयालात आपने लिए , एक अच्छी कोशिश , मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ----काफी चर्चा भी हो गयी , मोहतरम समर साहिब और मोहतरम शकूर साहिब ने जो कहा उसपे ध्यान देने की ज़रूरत है । यह तो ग़ज़ल लिखने वाला ही तय करता है कि क़ाफ़िया ,और रदीफ़ क्या है
मैंने जो महसूस किया उसके हिसाब से रदीफ़ " हैं " है और क़ाफ़िया चलते ,बदलते , ढलते ,पलते हैं । इस तरह आपको शेर 6 और 7 बदलने पड़ेंगे ,अगर आप मुनासिब समझें तो मतला यह करलें
हमारी आँख से आंसू तुम्हारे ही निकलते हैं
तुम्हारे नाम से जीवन यूँ ही हम काट चलते हैं
शुक्रिया
क़ाफ़िया 'चल'बन''बढ़'मुझे तो इसमें ईता नज़र नहीं आती/// चल और बढ़ क्या काफिया हो सकते हैं?
मुहतरम जनाब समर कबीर साहब आप न सिर्फ वरिष्ठ हैं बल्कि आपकी जानकारी मुझसे कहीं ज़्यादा है इसलिए मैं पहले ही आप से मुआफी माँग लेता हूँ, जहाँ तक मेरी जानकारी है कि काफिये की पहली शर्त है हर्फं रवी का समान होना मतले में पढ़ते व चलते काफिया लिया गया है जिसके हर्फे रवी ढ व ल है तो ये हमकाफिया कहाँ से हुआ, मैं मुतमईन अब भी नहीं। शेष, ग़ज़ल सतविंद्र साहब की है वो जैसा चाहे रखें.
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