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कौन बुरा लगता है

आजकल देखने मे
कौन बुरा लगता है,
रोता है वो फिर भी,
हंसता हुआ लगता है।
दिल में है दर्द
पलकें हैं भीगी हुयी,
कोई हमसे यूँ ही
रूठा हुआ लगता है।
डूबा हूँ पानी में
प्यासा हूँ बैठा हुआ
समन्दर भी मुझे अब
सूखा हुआ लगता है।
कौन यहाँ बिखरा गया
फूल और पतियों को,
पेड़ हर तरफ यहाँ ,
टूटा हुआ लगता है।
सब कुछ तो है घर की
दीवारों में सजा हुआ
आिशयाँ मेरा फिर भी
बिखरा हुआ लगता है।
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 4, 2016 at 12:32pm
आदरणीया दीपू जी बहुत ही सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें । आशियाँ के टंकण को ठीक करें । सादर ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 2, 2016 at 11:41am

आ० शिज्जू भाई की सम्मति काबिले गौर है . सादर

Comment by Samar kabeer on October 1, 2016 at 2:40pm
मोहतरमा दीपू जी आदाब,बढ़िया कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 1, 2016 at 1:23pm

///कौन यहाँ बिखरा गया
फूल और पत्तियों  को,
पेड़ हर तरफ यहाँ ,
टूटे हुए लगते हैं///  

///सब कुछ तो है घर की
दीवारों में सजा हुआ
आशियाँ मेरा फिर भी
बिखरा हुआ लगता है/// आ. दीपू जी अच्छी रचना हुई है, टंकण त्रुटि पाठकों का ध्यान भटका देती है, यहाँ रचनाकार की सजगता अपेक्षित है

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