घर का माहौल ग़मगीन था, डॉक्टर ने दोपहर को ही बता गया था कि माँ बस कुछ देर की ही की मेहमान हैI माँ की साँसें रह रह उखड रही थीं, धड़कन शिथिल पड़ती जा रही थी किन्तु फिर भी वह अप्रत्याशित तरीके से संयत दिखाई दे रही थीI ज़मीन पर बैठा पोता भगवत गीता पढ़ कर सुना रहा था, अश्रुपूरित नेत्र लिए बहू और बेटा माँ के पाँवों की तरफ बैठे सुबक रहे थेI
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भाई उस्मानी जी, आपको रचना पसंद आई यह जानकार संतोष हुआI बहुत बहुत शुक्रियाI
हार्दिक आभार आ० नीता कसार जीI
लघुकथा को पसंद फरमाने के लिए तह-ए-दिल से शुक्रिया मोहतरम जनाब समर कबीर साहिबI
आपकी प्रशंसा और सराहना मेरे लिए बहुत मायने रखती है भाई धर्मेन्द्र कुमार सिंह जीI आपके शुभ वचनों के लिए आपका दिल से शुक्रिया अदा करता हूँI
हार्दिक आभार भाई हरिकृष्ण ओझा जीI
आ० डॉ विजय शंकर जी, आपकी इस विस्तृत वैदूश्यपूर्ण टिप्पणी और उत्साहवर्धन हेतु आपका ह्रदयतल से आभार व्यक्त करता हूँI आपने अमीरी-गरीबी की बात की और भाई विनोद खनगवाल जी ने हरियाणा के गाँव का एक किस्सा साझा किया हैI अत: मैं भी स्वयं को इस लघुकथा से सम्बंधित एक रोचक बात बताने से रोक नहीं पा रहा हूँI लघुकथा विधा के बारे में यह कहा जाता है कि किसी भी घटना को अक्षरश: नहीं लिखा जाना चाहिएI उस घटना में अपनी कल्पनाशीलता का पुट देने से ही वह लघुकथा के रूप में ढल सकती हैI दरअसल यह लघुकथा एक सत्य घटना पर आधारित है जिसे मैंने उसकी मूल भावना को अक्षुण्ण रखते हुए अलग तरीके से ब्यान करने का प्रयास किया हैI
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यह हमारे शहर के एक धनाड्य परिवार की कहानी हैI उस परिवार में पति-पत्नी के इलावा उनके 3 शादीशुदा बेटे थेI माँ-बाप भारतीय मूल्यों और संस्कारों को मानने वाले थे, लेकिन उनके तीनो बेटे रहन-सहन और तबीयत से अंग्रेज़ थेI वे तीनो ही अपनी अपनी फेमिली के साथ विदेश में बसने की कवायद में मसरूफ थेI बुज़ुर्ग पिता जी जब अपने माँ-बाप का श्राद्ध करते तो तीनो बेटे नाक भौं सिकोड़ लेते और ऐसे सभी कर्मकांडों को रूढ़िवादी बतातेI ऐसा भी सुना है कि एक बार बेटों ने घर आए पण्डितों की बेईज्जती भी कीI बहरहाल, एक दिन बुज़ुर्ग मियाँ-बीवी ने आपस में सलाह मशविरा किया कि उनके मरने के उनके बेटे उनका श्राद्ध नहीं करेंगेI और ऐसा न करने से वे पाप के भागी बन जायेंगेI तो एक दिन उन्होंने फैसला किया कि वे दोनों जिंदा-जी गया जी जाकर अपना श्राद्ध कर्म करवाएंगे ताकि उनके बच्चों पर कोई पितृ-ऋण न चढ़ेI उन्होंने किया भी वैसा ही, गया जी से वापिस आने के बाद उन्होंने अपने बेटों से कहा कि अब वे श्राद्ध के उत्तरदायित्व से मुक्त हैंI
मैंने इस घटना को एज़-इट-इज़ नहीं लिखा, क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि "पितृ-ऋण" जैसे किसी वहम-भ्रम को बढ़ावा मिलेI जैसा कि भाई हरिकृष्ण ओझा जी ने लिखा है कि श्राद्ध दरअसल मृत पुरखों के प्रति श्रद्धा का नाम है, तो मैं कुछ ऐसा नहीं लिखना चाहता था जोकि हमारी इस सदिओं पुरानी परम्परा के विरोध में जाता होI मैंने ऐसा भी कुछ नहीं लिखा जिससे यह सन्देश भी जाए कि चाहे खुद के खाने के लिए घर में दाना न हो, लेकिन पुरोहितों को भरपेट पकवान खिलाना लाज़मी हैI अत: उस सच्ची घटना (कथानक) को मैंने अपने शब्दों में यूँ ब्यान किया हैI
हार्दिक आभार भाई विनोद खनगवाल जी, वाकई एक शब्द छूट गया थाI गलती की तरफ ध्यानाकर्षण हेतु दिल से शुक्रिया, अब वह पंक्ति सुधार ली हैI
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