वह एक दहशतगर्द इलाका था ।जहाँ खण्डरनुमा मकानों में रहने को विवश थी सहमी हुयी इंसानियत ।ऐसे ही एक मकान में-
"माँ! क्या अब मैं कभी स्कूल नहीं जा सकूंगी?"माँ की गोद में सिर रखे माहिरा ने पूछा।
"पता नहीं मेरी बच्ची।"जबाब ,उम्मीद और ना उम्मीदी के बीच झूलता सा था।
"क्या लड़कियों का पढ़ना-लिखना गुनाह हैं?"
"नहीं मेरी जान!ये किसने कह दिया ?लड़कियों को पढ़ने-लिखने की इज़ाजत तो खुद ख़ुदा ने दी है।"
"अच्छा!तो फिर उन लोगों ने उस लड़की को स्कूल जाने पर क्यों गोली मार दी?क्या वो खुदा को नहीं मानते?क्या वो दूसरे मज़हब के हैं?"
"पता नहीं बेटी! ये किस मज़हब के हैं ।किसे मानते हैं ,किसे नहीं।क्या चाहते हैं ,क्या नहीं।अब तू ज्यादा सवाल ना कर,सो जा चुपचाप।"
लेकिन मौजूदा हालात के चलते माहिरा के ज़हन में इतने सवाल कुलबुला रहे थे कि माँ के सिर्फ चुप कहने से वो थमे नहीं ।वह फिर बोली-
"लेकिन माँ ये सब तो मुसलमान हैं ना! क्या ये इस्लाम को नहीं मानते?"
अपनी मासूम सी बच्ची के मुँह से इतने भारी भरकम सवालों की तबक्को ज़रीना को कतई नहीं थी।लेकिन हाय रे हालात!तूने जाने कितने बच्चों से उनका बचपन छीना होगा।
"इस सवाल का क्या जबाब दूँ बेटी !अगर दे भी दूँ तो तू इतनी बड़ी नहीं की मेरी बात का मतलब समझ सके।"इतना सुनना था की माहिरा माँ की गोद से उछल कर पंजो के बल खड़ी हो गयी।
"नहीं माँ!देखो तो जरा, मैं कहाँ छोटी हूँ? देखो,मैं कितनी बड़ी हो गयी अब ।मास्टर साहब भी कहते हैं मैं सबसे समझदार हूँ। आप बताओ तो।"
बेटी की इस हरक़त से उसके चेहरे पर पल भर के लिए मुस्कान दौड़ी लेकिन अगले पल थम भी गयी।
"हाँ बेटी ये भी इस्लाम को मानते हैं ।लेकिन इन्हें देख कर लगता हैंजैसे इस्लाम दो तरह का हो गया है।"उसने खोयी ,खोयी आँखों से बात अधूरी छोड़ दी।
"दो तरह का?"
"हाँ दो तरह का "एक अल्लाह का ,दूसरा मुल्ला का"।ऊँचे पंजों के बावजूद माहिरा अभी भी छोटी ही थी।
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हार्दिक बधाई आदरणीय राहिला जी ।सुन्दर प्रस्तुति ।
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