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वाह! बड़ी स्वदिष्ट रचना.....
गोलगप्पे का नाम ही मुंह में पानी ला देता है , और आपने तो इतने सारे फ्लेवर्स पढ़ा पढ़ा कर पूरा पूरा ललचाया है..हाहाहा
सौरभ जी की छंदबद्ध फुलकी भी याद आ गयी ...सवैया छंद में है शायद
बहुत खूब
हार्दिक बधाई
अरे वाह ! गोलगप्पा के तो दिन बहुर गये ! वैसे शरद ऋतु आ ही गयी है. और यही मौसम है गोलगप्पे का ! इस गोलगप्पे को पानी-पुरी, पानी-बताशे भी कहते हैं और मेरे इलाहाबाद में इसे फुलकी कहते हैं. मैं भी, आदरणीया, गोलगप्पा का रसिया हूँ.
हींग और जीरे का लगाया है तड़का,
हरदिल अजीज, लाजवाब शै है
ये गोलगप्पा ,
भरे बाजार,लिये दोना सबरे खड़े,
ना होता कोई हक्का-बक्का,
मुँह में घुलाया, फिर जीभ से,
दिया अंदर धक्का,
वाह ! वाह !
आपकी रचना अच्छी हुई है. आपने दिल खोल कर आत्मीय भाव पिरोये हैं. इसलिए रचना भी स्वादिष्ट हुई है. :-))
हार्दिक बधाई आ० अपर्णा जी.
वैसे, अन्यथा न होगा, आदरणीया, यदि आप मेरी भी एक पुरानी रचना ’फुलकी’ को इसी परिप्रेक्ष्य में देख जाइए. हालाँकि वह इलाहाबादी भाषा में है, लेकिन हिन्दी की भरपूर छौंक होने से समझने अवश्य कोई दिक्कत नहीं आयेगी. यह आग्रह नहीं मात्र सूचना है. :-))
http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:177085
सादर
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