असंतोष की छटपटाहटें समेटते
गहन वेदना की छायाओं में पले
टूटे विश्वास के घाव खुले-के-खुले
न सिले
सिले ओंठ उन घावों की आस्था की
तकलीफ़ भरी पुकार के
मिट्टी के ढेले के उड़ गए कण हों मानो
उन घावों के मैदान से तुम तक अब
कोई आवाज़ तक नहीं आती
आदि से अनन्त हुए
सनातन संघर्षी घावों की आयु है कब से
तुम्हारे संवेदनशील भावों से अनजान
घायल दिन का अस्थि-पंजर समेटे
एक और न गुज़रती रात की अकथनीय पीड़ा ...
दूर, तुम्हारे ख्यालों से भी दूर, अनसुना-सा
रहने का उसका प्रस्ताव संकल्प बन जाता है
पर अगले ही पल ख्यालों में तुम्हारे आने की आहट
गालों पर तुम्हारा वह बरसों पहले का स्नेहिल हाथ
चट्टानी संकल्प काँपता अटकता उलझता
चिलकता है बहुत तब दुखता उदास मन
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया राजेश जी।
आभार में विलम्ब के लिए क्षमा करें... मुझको ओ बी ओ से most notifications नहीं आ रहीं, अत: अभी आपकी टिप्पणी संयोगवश ही दिख गई।
बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति बधाई स्वीकार करें आद० विजय निकोर जी |
// अहसासों, संवेदनाओं, दर्द की गहराई को शाब्दिक करती बढ़िया प्रस्तुति //
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी।
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय समर कबीर जी।
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