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आहुति – लघुकथा -

आहुति – लघुकथा -

गोविंदी को आज चार दिन हो गये बैंकों के चक्कर काटते हुए। हज़ार हज़ार  के चार नोट लेकर घूम रही थी। ना कोई सुनने वाला, ना कोई मदद करने वाला। तीन साल के इकलौते बच्चे को पड़ोसिन के सहारे छोड़ कर आती थी। एक एक पैसे को मुँह ताक रही थी। उसका मर्द ठेके पर मजदूरी करता था।  एक दिन भी नागा करना परिवार पर आर्थिक बज्रपात होता। घर खर्च चलाना दूभर हो रहा था। मगर आज गोविंदी कुछ मन में ठान कर आई थी। बैंक की लाइन में लगे हुए लोगों से बड़ बड़ा रही थी,

"भाई, कोई ऐसी तरक़ीब बताओ जिससे आज मुझे पैसा मिल जाय"।

"कल उस लड़की ने सबके आगे अपने कपड़े उतार दिये थे, तो पुलिस और बैंक वाले उसे अंदर ले गये और पैसे दे दिये। तुम भी कर लो"।

"नहीं भैया, यह तो मैं नहीं कर सकती। और कोई तरीका बताओ"।

एक नेता नुमा बंदे ने फ़ुसफ़ुसा कर कहा,

"मेरे पास इससे भी जोरदार तरीका है"।

"बताओ, जल्दी बताओ"।

उस नेता नुमा बंदे ने गोविंदी के हाथ में एक माचिस की डब्बी देते हुए कहा,

"अपनी साड़ी में आग लगा लो। हम लोग तुरंत आग बुझा देंगे। तुम्हारा काम हो जायेगा"।

गोविंदी तुरंत राज़ी हो गयी। अगले ही क्षण गोविंदी की साड़ी जल रही थी। साथ में गोविंदी भी जल रही थी। नेताजी गायब थे।

 मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on November 16, 2016 at 5:08pm
जनाब तेजवीर सिंह जी आदाब,बहुत ही शानदार तंज़ किया है आपने आज के हालात पर,ग़रीबों का जीना दूभर हो गया है,लेकिन कोई सुनने वाला नहीं,वाह बहुत ख़ूब, इस शानदार प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

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