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बुलबुला है इक फ़कत ये जिस्म जाँ कुछ भी नहीं (तरही ग़ज़ल )

2122   2122   2122   212

बुलबुला है इक फ़कत ये जिस्म जाँ कुछ भी नहीं

जिंदगानी  से   कजा की दूरियाँ कुछ भी नही

 

बागबाँ की है कमी या पस्त है आबो हवा

पाक  नकहत फूल के अब दरमियाँ कुछ भी नही

 

मोल उसका गर न समझे तो बशर की भूल है

हम को कुदरत दे रही जो  रायगाँ कुछ भी नही

 

आशिकों की मौत पे  जो शम्मअ के दिल से उठे

नफरतों से जो निकलता वो धुआँ कुछ भी नही

 

फिक्र-ए-शाइर नापती कब  से अज़ल की दूरियाँ

उसके आगे ये जमीन-ओ-आसमाँ कुछ भी नही

 

हिम्मते  परवाज़ से जो आसमां को जीतता  

उसको मुश्किल कायनात-ए- बेकराँ कुछ भी नही     

 

जिसका गुलशन ढक गया हो तीरगी की यास में

फिर उसे  शादाब मंजर या खिजाँ कुछ भी नही

 

जुल्म करना हो जिन्हें क्या फ़र्क पड़ता है उन्हें  

उनकी खातिर बाजुबाँ या बेजुबाँ कुछ भी नही  

फेर में सूद-ओ-ज़ियाँ के जिस खुदा को भूलते   

हो न उसका इज़्न तो मिलता यहाँ कुछ भी नहीं

----------------राजेश कुमारी “राज ‘

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 21, 2016 at 5:52pm

आद० नरेन्द्र सिंह जी ,आपका बहुत- बहुत शुक्रिया. 

Comment by narendrasinh chauhan on November 21, 2016 at 5:44pm

खूब सुन्दर रचना बहुत बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 21, 2016 at 5:41pm

आद० श्याम नारायण जी ,आपका   हार्दिक शुक्रिया आभार , 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 21, 2016 at 5:41pm

आद० सुरेन्द्र नाथ सिंह भैया,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया | 

Comment by Shyam Narain Verma on November 21, 2016 at 4:39pm

इस लाजवाब, उम्दा ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई 

सादर ।

Comment by नाथ सोनांचली on November 21, 2016 at 2:52pm
दीदी आदरणीया राजेश कुमारी जी सादर अभिवादन... बहुत ही उम्दा गजल, हर शेर कुछ कहता हुवा। आपको हार्दिक बधाई निवेदित है।

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