2122 2122 2122 212
बुलबुला है इक फ़कत ये जिस्म जाँ कुछ भी नहीं
जिंदगानी से कजा की दूरियाँ कुछ भी नही
बागबाँ की है कमी या पस्त है आबो हवा
पाक नकहत फूल के अब दरमियाँ कुछ भी नही
मोल उसका गर न समझे तो बशर की भूल है
हम को कुदरत दे रही जो रायगाँ कुछ भी नही
आशिकों की मौत पे जो शम्मअ के दिल से उठे
नफरतों से जो निकलता वो धुआँ कुछ भी नही
फिक्र-ए-शाइर नापती कब से अज़ल की दूरियाँ
उसके आगे ये जमीन-ओ-आसमाँ कुछ भी नही
हिम्मते परवाज़ से जो आसमां को जीतता
उसको मुश्किल कायनात-ए- बेकराँ कुछ भी नही
जिसका गुलशन ढक गया हो तीरगी की यास में
फिर उसे शादाब मंजर या खिजाँ कुछ भी नही
जुल्म करना हो जिन्हें क्या फ़र्क पड़ता है उन्हें
उनकी खातिर बाजुबाँ या बेजुबाँ कुछ भी नही
फेर में सूद-ओ-ज़ियाँ के जिस खुदा को भूलते
हो न उसका इज़्न तो मिलता यहाँ कुछ भी नहीं
----------------राजेश कुमारी “राज ‘
Comment
आद० नरेन्द्र सिंह जी ,आपका बहुत- बहुत शुक्रिया.
खूब सुन्दर रचना बहुत बधाई
आद० श्याम नारायण जी ,आपका हार्दिक शुक्रिया आभार ,
आद० सुरेन्द्र नाथ सिंह भैया,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया |
इस लाजवाब, उम्दा ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई सादर । |
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