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पर्दा जो उठ गया तो हुआ काला धन तमाम
चोरों की ख्वाहिशों के जले तन बदन तमाम
बरसों से जो महकते रहे भ्रष्ट इत्र से
इक घाट पे धुले वो सभी पैरहन तमाम
बावक्त असलियत का मुखौटा उतर गया
किरदार का वजूद हुआ दफ़अतन तमाम
ये बंद खिड़कियाँ जो खुली, पस्त हो गई
सब झूट औ फरेब की बदबू घुटन तमाम
परवाज पर लगाम जो माली ने डाल दी
भँवरे का हो गया वो तभी बाँकपन तमाम
ईलाज में दवाएँ भी नाकाम हो रही
ईमान की खुराक से सुधरे वतन तमाम
जादू न जाने क्या था मदारी के खेल में
बेहोश इक नजर में हुई अंजुमन तमाम
----मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० डॉ० आशुतोष जी ,ग़ज़ल पर आपकी शिरकत से अतीव प्रसन्नता हुई आपको पसंद आई मेरा लेखन कर्म सार्थक हुआ दिल से बहुत बहुत आभारी हूँ .
आद० गिरिराज जी ,ग़ज़ल पर आपकी दाद मिली लिखना सार्थक हो गया दिल से आभारी हूँ |
आदरणीया राजेश जी .हर शेर उम्दा है , मंच पर मेरा भी बहुत दिनों बाद आना हो पाया है ,इस शानदार ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाई स्वीकार करें ..सादर
आदरणीया राजेश जी , बहुत सुन्दर गज़ल कही है आपने , सभी अशआर अच्छे हुये हैं , बधाइयाँ स्वीकार कीजिये ।
आद० लक्ष्मण धामी भैया ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका बहुत- बहुत शुक्रिया |
आद० मिथिलेश भैया ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लेखन कर्म सार्थक हुआ दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया .
आद० विजय निकोर जी,आपका दिल से बहुत बहुत शुक्रिया
आद० डॉ० गोपाल भाई जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया |
आद० सुरेन्द्र नाथ सिंह जी ,ग़ज़ल पर आपकी दाद ने लेखन सार्थक कर दिया बहुत बहुत शुक्रिया |
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