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बुलबुला है इक फ़कत ये जिस्म जाँ कुछ भी नहीं
जिंदगानी से कजा की दूरियाँ कुछ भी नही
बागबाँ की है कमी या पस्त है आबो हवा
पाक नकहत फूल के अब दरमियाँ कुछ भी नही
मोल उसका गर न समझे तो बशर की भूल है
हम को कुदरत दे रही जो रायगाँ कुछ भी नही
आशिकों की मौत पे जो शम्मअ के दिल से उठे
नफरतों से जो निकलता वो धुआँ कुछ भी नही
फिक्र-ए-शाइर नापती कब से अज़ल की दूरियाँ
उसके आगे ये जमीन-ओ-आसमाँ कुछ भी नही
हिम्मते परवाज़ से जो आसमां को जीतता
उसको मुश्किल कायनात-ए- बेकराँ कुछ भी नही
जिसका गुलशन ढक गया हो तीरगी की यास में
फिर उसे शादाब मंजर या खिजाँ कुछ भी नही
जुल्म करना हो जिन्हें क्या फ़र्क पड़ता है उन्हें
उनकी खातिर बाजुबाँ या बेजुबाँ कुछ भी नही
फेर में सूद-ओ-ज़ियाँ के जिस खुदा को भूलते
हो न उसका इज़्न तो मिलता यहाँ कुछ भी नहीं
----------------राजेश कुमारी “राज ‘
Comment
आद० रामबली गुप्ता जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लेखन कर्म सार्थक हुआ दिल से बहुत- बहुत आभार आपका |
आद० डॉ० गोपाल भाई जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका थे दिल से आभार |
दीदी बाकमाल गजल हुयी है . बहुत बहुत बधाई .
मिथिलेश भैया ,ग़ज़ल पर शिरकत और होंसलाफ्जाई का तहे दिल से शुक्रिया आपकी इस्स्लाह का दिल से स्वागत है आपने जिंदगानी शब्द बहुत बढिया सुझाया बहुत बहुत आभारी हूँ इस ग़ज़ल को कुछ संशोधनों के साथ पुनः पोस्ट करती हूँ |
आद० समर भाई जी,ग़ज़ल पर आपकी दाद मेरे लिए बहुत मायने रखती है आपकी इस्स्लाह काबिले गौर हैं तथा उनपर अमल भी करुँगी मेरी ग़ज़ल के निखार में और इजाफ़ा होगा आपका तहे दिल से शुक्रिया
फिक्र-ए-शाइर नापती अब से अज़ल की दूरियाँ--इसमें अब का अर्थ वर्तमान से लिया था अर्थात इस वक़्त से आदिकाल तक .किन्तु यदि आप सब को कब शब्द ज्यादा ठीक लग रहा है तो मैं बदल दूँगी .आपके मार्ग दर्शन का बहुत बहुत आभार
आद० गिरिराज जी,ग़ज़ल पर शिर्कत और सराहना के लिए दिल से शुक्रगुजार हूँ\ आपकी इस्स्लाह का स्वागत है बहुत बहुत आभार |
आदरणीया राजेश दीदी, बहुत शानदार ग़ज़ल कही है आपने. शेर-दर-शेर दाद हाज़िर है-
बुलबुला है इक फ़कत ये जिस्म जाँ कुछ भी नहीं
जिन्दगी से उस कजा की दूरियाँ कुछ भी नही............. बढ़िया मतला.... एक विचार आया अगर 'जिंदगानी से कज़ा की' किया जाए तो?
बागबाँ की है कमी या पस्त है आबो हवा
पाक़ नकहत फूल के अब दरमियाँ कुछ भी नही.............. बढ़िया
मोल उसका गर न समझे तो बशर की भूल है
हम को कुदरत दे रही जो रायगाँ कुछ भी नही............ वाह वाह
आशिकों की मौत से जो शम्मअ के दिल से उठे.............. "आशिकों की मौत पे"
नफरतों से जो निकलता वो धुआँ कुछ भी नही
फिक्र-ए-शाइर नापती अब से अज़ल की दूरियाँ
उसके आगे ये जमीं या आसमाँ कुछ भी नही............. बहुत खूब ... इस पर आदरणीय समर कबीर जी कह चुके है.
हिम्मते परवाज़ से जो आसमां को जीतता
उसको मुश्किल कायनातें बेकराँ कुछ भी नही............... वाह वाह
जिसका गुलशन ढक गया हो तीरगी की यास में
फिर कहाँ शादाब मंजर या खिजाँ कुछ भी नही................... बढ़िया ... इस पर भी गुनीजनों की बढ़िया इस्लाह
जुल्म करना हो जिन्हें क्या फ़र्क पड़ता है उन्हें
उनकी खातिर बाजुबाँ या बेजुबाँ कुछ भी नही ..................... वाह वाह वाह...हासिल-ए-ग़ज़ल
फेर में सूदों जिया के जिस खुदा को भूलते
हो न उसका इज़्न तो मिलता यहाँ कुछ भी नहीं............ बहुत खूब..... गुनीजन सूद-ओ-ज़ियाँ की टंकण त्रुटी की ओर संकेत कर चुके हैं.
इस शानदार ग़ज़ल पर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. सादर नमन
आदरनीया राजेश जी , बेहतरीन गज़ल हुई है . सभी अशआर मानी खेज़ हुये हैं , मुबारकबाद कुबूल कीजिये ।
जिसका गुलशन ढक गया हो तीरगी की यास में
फिर कहाँ शादाब मंजर या खिजाँ कुछ भी नही --- इस मिसरे मे - कहाँ की जगह ' उसे ' कर के पढ़ के देखियेगा ... शायद सार्थक लगे ।
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