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आध्यात्म और नैतिक अनुभूति को स्वर देती इस प्रस्तुति केलिए धन्यवाद. विधान और तार्किकता पर अभी और प्रयास की आवश्यकता प्रतीत होती है. किन्तु, संभवतः समयाभाव ही होगा. वैसे, समयाभाव के कारण वैधानिक स्तर के ऐसे अनगढ़ विन्दु आपकी प्रस्तुतियों का ’तदनुरूप हिस्सा’ हो गये हैं.
शुभेच्छाएँ.
अ० पंकज जी आपने गीत का मुखड़ा बहुत सुन्दर रचा . इसमें 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 का सुन्दर संयोजन है पर की पंक्तियों में इसका निर्वाह नहीं हो पाया . इस मधुर गीत की यही एक दिक्कत है . आशा है आप सुधार आर लेंगे . सादर .
आदरनीय पंकज भाई , सुन्दर भाव पूर्ण गीत रचना हुई है , हार्दिक बधाइयाँ ।
कागा के लिये कुहुक , कहना मुझे भी उचित नही लगता , कोयल लेने से कुहुक उठी कहना पड़ेगा - इस्लिये - कोयल मन भी कुहुक उठा - किया जा सकता है -- देखियेगा अगर सही लगे तो ?
आदरणीय पंकज जी, बढ़िया गीत लिखा है. बधाई. कागा का कोयल की तरह कुहकना जमा अटपटा लग रहा है. सादर
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