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अधूरी तिश्नगी ...

अधूरी तिश्नगी ...

कैसे भूल सकती हूँ
वो रात
वो बात
जो एक चिंगारी से
शुरू हुई थी

वो चिंगारी
मेरी रगों में
धीरे धीरे
आग बनकर फैलती गयी
और मैं
चुपचाप उस आग में
जलती रही

मैं
खामोशियों के बियाबाँ में
गूंगी बनी
अपने जज़्बातों से
तन्हा सी
गुफ़्तगू करती रही

अपने खून में
लगी आग को बुझाना
मुझे कहां आता था
निहारती रही
आसमां की तरफ़
कि शायद कोई अब्र
मुझ पर रहम खायेगा
मेरी आग को बुझा जाएगा

मगर
सहरा से तन्हा लम्हों में
मैं
मेरी रात
वो चिंगारी बनी बात
बेबस दिए की

लौ की मानिंद
हर करवट
अधूरी तिश्नगी लिए
बस जलते रहे
पिघलते रहे

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on December 9, 2016 at 1:43pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी प्रस्तुति को अपनी आत्मीय प्रशंसा से अलंकृत करने का हार्दिक आभार। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 8, 2016 at 11:51pm

आदरणीय सुशील सरना सर, बहुत बढ़िया प्रस्तुति. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई निवेदित है. सादर 

कृपया ध्यान दे...

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