(मफाईलुन---मफाईलुन ----फऊलन )
ज़माना दुश्मने दिल हो गया है |
मुहब्बत करना मुश्किल हो गया है |
सफ़ीना बच गया तूफां से लेकिन
बहुत ही दूर साहिल हो गया है |
यह क्या कम है जुदा थी राह जिसकी
वो साथी क़ब्ले मंज़िल हो गया है |
खिलाफे ज़ुल्म कोई लब न खोले
जिसे देखो वो बुज़दिल हो गया है |
निगाहें बोलती हैं यह किसी की
ये दिल अब उनके क़ाबिल हो गया है |
किसी की खूब रूई का है जादू
पशेमाँ माहे कामिल हो गया है |
जिसे तस्दीक़ समझे हो मसीहा
सुना है वो भी क़ातिल हो गया है |
( मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
मुहतरम जनाब गिरिराज साहिब , ग़ज़ल में शिरकत और आपकी हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया , महरबानी --
मुहतरम जनाब महेंद्र कुमार साहिब , ग़ज़ल में शिरकत और आपकी हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया , महरबानी --
मुहतरम जनाब मिथिलेश साहिब , ग़ज़ल में शिरकत और आपकी हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया , महरबानी --
मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब आदाब , यह बात इस से पहले मैं ने न तो कहीं पढ़ी और न ही सुनी , मुझे सिर्फ इतना मालुम था
कि इज़ाफ़त सिर्फ अरबी और फ़ारसी अलफ़ाज़ में लगती है , उस हिसाब से मैं ने क़ब्ले मंज़िल मिसरे में लिया है ।
जानकारी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया , और कौन कौन से लफ्ज़ हैं जिन में इज़ाफ़त नहीं लगती बताने की ज़हमत कीजिये ---सादर
आदरनीय तस्दीक भाई , खूब सूरत ग़ज़ल के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।
आदरणीय समर भाई जी , आपने एक नई बात समझाई , कि इज़ाफत सभी शब्दों मे नही लगाई जा सकती , आपका आभार
मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब आदाब , ग़ज़ल में आपकी गहराई से शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया , महरबानी ---
शेर 3 के सानी मिसरे में " क़ब्ले मंज़िल " का मतलब " मंज़िल से पहले " लिया है --सादर
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