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ग़ज़ल ( मुहब्बत करना मुश्किल हो गया है )

(मफाईलुन---मफाईलुन ----फऊलन )

ज़माना दुश्मने दिल हो गया है |
मुहब्बत करना मुश्किल हो गया है |

सफ़ीना बच गया तूफां से लेकिन
बहुत ही दूर साहिल हो गया है |

यह क्या कम है जुदा थी राह जिसकी
वो साथी क़ब्ले मंज़िल हो गया है |

खिलाफे ज़ुल्म कोई लब न खोले
जिसे देखो वो बुज़दिल हो गया है |

निगाहें बोलती हैं यह किसी की
ये दिल अब उनके क़ाबिल हो गया है |

किसी की खूब रूई का है जादू
पशेमाँ माहे कामिल हो गया है |

जिसे तस्दीक़ समझे हो मसीहा
सुना है वो भी क़ातिल हो गया है |

( मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by Tasdiq Ahmed Khan on December 21, 2016 at 10:07pm

मुहतरम जनाब  गिरिराज   साहिब , ग़ज़ल में शिरकत और आपकी हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया , महरबानी --

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on December 21, 2016 at 10:07pm

मुहतरम जनाब महेंद्र कुमार   साहिब , ग़ज़ल में शिरकत और आपकी हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया , महरबानी --

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on December 21, 2016 at 10:06pm

मुहतरम जनाब मिथिलेश  साहिब , ग़ज़ल में शिरकत और आपकी हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया , महरबानी --

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on December 21, 2016 at 10:04pm

मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब आदाब , यह बात इस से पहले मैं ने न तो कहीं पढ़ी और न ही सुनी , मुझे सिर्फ इतना मालुम था
कि इज़ाफ़त सिर्फ अरबी और फ़ारसी अलफ़ाज़ में लगती है , उस हिसाब से मैं ने क़ब्ले मंज़िल मिसरे में लिया है ।
जानकारी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया , और कौन कौन से लफ्ज़ हैं जिन में इज़ाफ़त नहीं लगती बताने की ज़हमत कीजिये ---सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 21, 2016 at 5:17pm

आदरनीय तस्दीक भाई , खूब सूरत ग़ज़ल के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।

आदरणीय समर भाई जी , आपने एक नई बात समझाई , कि इज़ाफत सभी शब्दों मे नही लगाई जा सकती , आपका आभार

Comment by Mahendra Kumar on December 21, 2016 at 11:41am
आदरणीय तस्दीक़ जी, बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने। मेरी तरफ से ढेरों बधाई। आदरणीय समर कबीर सर को गूढ़ जानकारी साझा करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 20, 2016 at 10:08pm
आदरणीय तस्दीक जी बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने। दाद के साथ मुबारकबाद कुबूल फ़रमायें।
आदरणीय समर कबीर जी, अज़ के सम्बन्ध में साझा के लिए हार्दिक आभार। धन्यवाद। सादर
Comment by Samar kabeer on December 20, 2016 at 9:02pm
मेरे भाई मतलब मैंने नहीं पूछा,यहाँ मेरा इशारा आप नहीं समझ पाए,मैं आपको और मंच को ये बताना चाहता हूँ कि कुछ उर्दू के शब्द ऐसे हैं जिनमें इज़ाफ़त नहीं लगती,और "क़ब्ल"शब्द उन्हीं शब्दों में आता है,इसमें अगर इज़ाफ़त की ज़रूरत है तो उसके साथ "अज़"लगाना पड़ेगा जैसे "क़ब्ल अज़ मंज़िल"यानी मंज़िल से पहले,इसी तरह "वक़्त"में इज़ाफ़त लगाना हो तो "क़ब्ल अज़ वक़्त"इसी तरह "बाद"शब्द में लगाना है तो "बाद अज़"कहना पड़ेगा ।
इस हिसाब से आपका ये शैर ऐबदार है । उम्मीद है आप समझ गए होंगे ?
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on December 20, 2016 at 8:01pm

मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब आदाब , ग़ज़ल में आपकी गहराई से शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया , महरबानी ---
शेर 3 के सानी मिसरे में " क़ब्ले मंज़िल " का मतलब " मंज़िल से पहले " लिया है --सादर

Comment by Samar kabeer on December 20, 2016 at 5:16pm
जनाब तस्दीक़ अहमद साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
तीसरे शैर में 'क़ब्ल-ए-मंज़िल'की तरकीब समझ में नहीं आई ?

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