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कोई सूरज भी ढल रहा होगा।

2122/1212/22

चाँद जब भी निकल रहा होगा।
कोई सूरज भी ढल रहा होगा।

ज़िन्दगी भर न वो रहेगा यूँ,
उस का दिल भी पिघल रहा होगा।

मर्ज़-ए-दिल हम को ही नहीं केवल,
उसका भी दम निकल रहा होगा।

चोट खाने के बाद हम सा ही,
आज वो भी सँभल रहा होगा।

हम को इतना यक़ीं तो है 'रोहित',
हिज़्र में वो भी जल रहा होगा।

रोहिताश्व मिश्रा
फ़र्रुखाबाद
(मौलिक एवम् अप्रकाशित)

Views: 686

Comment

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 21, 2016 at 7:28pm
खयबसुरत ग़ज़ल बधाई
Comment by Samar kabeer on December 21, 2016 at 5:02pm
जनाब रोहिताश्व मिश्रा जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
Comment by रोहिताश्व मिश्रा on December 21, 2016 at 12:17pm
शुक्रियः सर
__/\__

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 21, 2016 at 12:35am

आदरणीय रोहिताश्व मिश्रा जी, कृपया ग़ज़ल की बह्र या वज्न लिख दीजिये. सादर

मरज़-ए-दिल = मर्ज़-ए-दिल 

सँभाल = सँभल 

कृपया ध्यान दे...

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