कह्र ...
थक गयी है
लबों पे हंसी
शायद लब
आडम्बर का ये बोझ
और न सहन कर पाएंगे
संग अंधेरों के
ये भी चुप हो जाएंगे
कफ़स में कहकहों के
दर्द बेवफाई का
ये छुपा न पाएंगे
बावज़ूद
लाख कोशिशों के
ये
गुज़रे हुए
लम्हों की आतिश से
बंद पलकों से
पिघल कर
तकिये को
गीला कर जाएंगे
सहर की पहली शरर पे
रिस्ते ज़ख्मों का
कह्र लिख जाएंगे
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय राजेश कुमारी जी प्रस्तुति के भावों को अपने स्नेहिल शब्दों से मान देने का हार्दिक आभार।
आद० सुशील सरना जी ,बहुत सुंदर कविता.. क्या मुझे तो ये नज्म की तरह लगी बहुत खूबसूरत ..बहुत बहुत बधाई
आ. मिथिलेश वामनकर जी प्रस्तुति को अपनी स्नेहिल प्रशंसा से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
आ. Mahendra Kumar जी प्रस्तुति के भावों को अपना आत्मीय सम्मान देने का दिल से शुक्रिया।
आदरणीय सुशील सरना सर, बहुत बढ़िया प्रस्तुति. हार्दिक बधाई. सादर
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप जी प्रस्त्तुति के भावों को सम्मानित करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्त्तुति को अपने आत्मीय स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय डॉ गोपाल जी भाई साहिब प्रस्त्तुति को अपने स्नेहाशीष से पल्लवित करने का हार्दिक आभार।
आदरणीया कल्पना भट्ट जी प्रस्तुति के भावों को अपना आत्मीय स्नेह देने का हार्दिक आभार।
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