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बाप बेटे में कुछ फ़ासला रह गया

212 212 212 212

बाप बेटे में कुछ फासला रह गया ।
हौसला सब धरा का धरा रह गया ।।

लोग हैरान हैं कुछ परेशान भी ।
हुक्मरां क्यों ठगा का ठगा रह गया ।।

क़त्ल रिश्तों के देखे गए आज फिर ।
कुछ मुनाफे का बस माजरा रह गया ।।

कुर्सियो पर रही उसकी पैनी नज़र ।
वह मिशन मानकर बस लगा रह गया ।।

थे करम कुछ बुरे जो नतीजे मिले ।
खून था जो तेरा गैर का रह गया ।।

क्या उमीदें रखे यह रियासत यहाँ ।
घर में अपने वही बेवफा रह गया ।।

हर हक़ीक़त रिहा हो गई क़ैद से ।
और पर्दा गिरा का गिरा रह गया ।।

राम भक्तों पे गोली चली शान से ।
पाप था कुछ लिखा तो लिखा रह गया।।

है कहानी अमर कुछ अमर की वजह ।
इश्क़ में सर झुका तो झुका रह गया ।।

आह जिन्दा बदायूं से मथुरा तलक ।
जख़्म अब भी हरा का हरा रह गया ।।

मौन सूबा रहा हर तरक्की लुटी ।
क्यों वजीरों का रुतबा बना रह गया ।।

छोड़िये कुर्सियां जश्न हो मुल्क में ।
दाग़ दामन पे बेशक़ लगा रह गया ।।

मौत मुमकिन थी तेरी इसी जख़्म से ।
इस बुढ़ापे में सब देखना रह गया ।।

--नवीन मणि त्रिपाठी

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on January 3, 2017 at 10:03am

आदरनीय नवीन भाई , बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है  आपने , गज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Naveen Mani Tripathi on January 3, 2017 at 12:10am
आदरणीय मिथिलेश सर तहेदिल से शुक्रिया ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 2, 2017 at 11:43pm

आदरणीय नवीन जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है। इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई। सादर।

Comment by Naveen Mani Tripathi on January 2, 2017 at 3:50pm
आदरणीय महेंद्र कुमार साहब सादर आभार ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on January 2, 2017 at 3:49pm
आदरणीय कबीर सर सादर नमन । गुरुदेव सब आपकी मेहनत का फल है ।
Comment by Mahendra Kumar on January 2, 2017 at 3:17pm
आदरणीय नवीन जी, अच्छी ग़ज़ल कही है आपने। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
Comment by Samar kabeer on January 2, 2017 at 2:21pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल कही आपने,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।

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