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सच ,लगने लगा पराया ...

सच ,लगने लगा पराया ...

न मेरा
आना झूठ था
न तेरा
जाना झूठ था
दूर जाने का मुझसे
बस बहाना
झूठ था

जीती रही
जिस शब् को
हकीकत मानकर
सहर की शरर पे सोया
वो
अफ़साना झूठ था

बादे सबा
में लिपटी
सदायें
यूँ तो आयी थीं
तेरे बाम से मगर
उसमें छुपा
हिज़्रे ग़म को
बहलाने का
तराना झूठ था

इक झूठ
तूने जिया
इक झूठ
मैंने जिया
न सच
तुझे भाया
न सच 
मैंने अपनाया
कैसी की
तूने मुहब्बत
झूठ
बन गया सच
और सच
लगने लगा पराया

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on January 7, 2017 at 1:14pm

आदरणीय  Mahendra Kumar जी प्रस्तुति के भावों को अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार। 

Comment by Mahendra Kumar on January 7, 2017 at 11:15am
कैसी की
तूने मुहब्बत
झूठ बन गया सच
और सच
लगने लगा पराया ...बहुत बढ़िया प्रस्तुति है आदरणीय सुशील सरना जी। मेरी तरफ से ढेरों बधाई प्रेषित है। सादर।
Comment by Sushil Sarna on January 6, 2017 at 8:09pm

आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप'    जी प्रस्तुति में निहित भाव आपकी आत्मीय प्रशंसा के आभारी हैं। आपका हार्दिक आभार। 

Comment by Sushil Sarna on January 6, 2017 at 8:07pm

आदरणीय सतविन्दर कुमार जी प्रस्तुति के भावों को अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार। 

Comment by नाथ सोनांचली on January 6, 2017 at 5:10pm
आदरणीय सुशील सरना जी सादर अभिवादन, बेह्तरीन रचना हुयी है, आपको सादर बधाइयाँ निवेदित हैं।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on January 6, 2017 at 4:59pm
सुन्दर सृजन हेतु हरदिक् बधाई आदरणीय सुशील सरना जी!

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