For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

बर्फ़ीला मौन रिश्ते की आत्मा के फूलों पर

झुठलाती-झूठी अजनबी हुई अब बातें

स्नेह के सुनहरे पलों में हाथों में वेणी लिए

शायद बिना सोचे-समझे कह देते थे तुम ...

" फूलों-सी हँसती रहो, कोयल-सी गाती रहो "

" अब आज से तुम मेरी ज़िम्मेवारी हो "

और मैं झुका हुआ मस्तक लिए

श्रधानत, कुछ शरमाई, मुस्करा देती थी

कोई बातें कितनी जल्दी

इ..त..नी  पुरानी हो जाती हैं

जैसे मैं और हम और हमारी

आपस में घुली एकाकार साँसें ...

सिहरते आँसुओं से डबडबाई बेसब्र दर्दभरी आँखें

पिघली हुई बर्फ़-सी बहती हैं, कहती हैं अभी भी

तुम्हारी वह मनोहर " आसमानी " बातें

अन्धकारमय निज एकान्त में भटकती

सूखी राख-सी  झर-झर जाती हूँ मैं

भंगुर, खोखले हुए अब शब्दों के स्वर

ठिठुरती है मौन की अनुगूँज

शून्य की ध्वनिगुंजित प्रतिध्वनि

गहरे कहीं तैरते-उतरते भीतरी गढ्ढों में

कम्पनमय शून्य के पीछे के परदों में

कैद है, संघर्षी रातों में जिसे मैं झेल नहीं पाती

धुएँ की लकीरों में उभरती तुम्हारी आकृति

अकुला रही है क्यूँ धूलभरे दीपक की लौ

तुम्हारी परछाईं लम्बी हुई जाती है

सच, तुम आ रहे हो क्या फिर से करने कुछ बातें ?

स्नेहमय रोमांचित संवेदित शब्द सुनाने ?

मैं भी ऐसे में सुन लेती हूँ तुम्हारी अजनबी हुई बातें ...

" बिन्दो, तुम्हारी आँखों में यह आँसू नहीं शोभते "

" मेरी आँखों में देखो कौन है ? तुम, केवल तुम "

" मैं तुम्हारा हूँ बिन्दो, केवल तुम्हारा " ... सच ?

अब ज़िन्दगी की दलदल में धूप तपी राहों में

पता नहीं मैं मैं न रही, या तुम तुम न रहे

बातें अब वह बातें न रहीं,  बातों के ही साथ गईं

या, उन बातों में अब शब्दों के हैं अर्थ बदल गए

ऊब गई ज़िन्दगी की तनी हुई रग कट गई, या

कम्पनमय आस्था के अकस्मात कंगन टूट गए

                           -------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 673

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by vijay nikore on January 17, 2017 at 10:50pm

//हमेशा की तरह आपकी ये रचना भी बेहद प्रभावशाली हुई है//

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मित्र समर कबीर जी

Comment by vijay nikore on January 12, 2017 at 4:06pm

 इस रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय महेन्द्र जी

Comment by vijay nikore on January 11, 2017 at 1:18pm

आपने इस रचना पर प्रतिक्रिया के लिए इतना समय दिया, और अपने विचार दिए। इसके लिए और कविता की सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय मिथिलेश जी।

Comment by vijay nikore on January 11, 2017 at 1:15pm

//गंभीर रचना है अतीत की सुनहरे लम्हों का जिक्र करती यह रचना हर इंसान की आपबीती सी लगती है //
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय आशुतोष जी

Comment by Samar kabeer on January 9, 2017 at 4:14pm
जनाब डॉ.विजय निकोर जी आदाब,हमेशा की तरह आपकी ये रचना भी बेहद प्रभावशाली हुई है,इस शानदार प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Mahendra Kumar on January 8, 2017 at 9:39am
आदरणीय मिथिलेश सर, आपके पाठकीय गुण को देख कर नतमस्तक हूँ। सादर।
Comment by Mahendra Kumar on January 8, 2017 at 9:38am
आदरणीय Vविजय निकोर सर, बहुत बढ़िया कविता लिखी है आपने। मेरी तरफ से हार्दिक बधाई निवेदित हैं। सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 8, 2017 at 2:38am

आदरणीय विजय निकोर सर, अतीत की स्वर्णिम स्मृतियों और वर्तमान की वेदना और उससे उपजे संत्रास को शाब्दिक करती इस गंभीर कविता ने कहीं भीतर तक हिला दिया है. एक अजीब सी टीस उठ रही है मन में. मष्तिष्क के किसी कोने में चुपके से एक भय व्याप रहा है. क्या जीवन के एकाकी क्षण इतनी पीड़ा, इतना संत्रास उपजा सकते है कि सुनहरे अतीत से संश्लिष्ट होता वर्तमान अंतस को उद्द्वेलित कर देता है. यह अवश्य है कि जीवन का संतुलन सुख-दुःख में समवेत निहित है किन्तु सुख आकार निरंतर लाघव होता हुआ दुःख को समानांतर विस्तार देता है. इस प्रस्तुति के निहितार्थ से अकस्मात् ही अपनत्व सा लगने लगा. संभवतः यही कारण भी है कि मैंने आपकी रचना का पुनर्पाठ अपनी सुविधानुसार करने की धृष्टता कर ली है. इस शानदार प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई प्रेषित करते हुए ही अपने अनुभवहीन मन की लालसा को संपूरित करने के क्रम में किये गए अपने पुनर्पाठ को क्षमा सहित निवेदित कर रहा हूँ-

 

बर्फीला मौन है-

रिश्ते की आत्मा के फूलों पर

झुठलाती-झूठी अजनबी हुई अब बातें

स्नेह के सुनहरे पलों में,

हाथों में वेणी लिए,

शायद बिना सोचे-समझे कह देते थे तुम ...

" फूलों-सी हँसती रहो, कोयल-सी गाती रहो "

" अब आज से तुम मेरी ज़िम्मेवारी हो"

और मैं नतमस्तक, श्रद्धानत, कुछ शरमाई-सी,

बस मुस्करा देती थी

 

कुछ बातें कितनी जल्दी,

इ..त..नी  पुरानी हो जाती हैं,

जैसे मैं, जैसे तुम,

और जैसे हमारी आपस में घुली एकाकार साँसें

 

सिहरते आँसुओं से डबडबाई बेसब्र दर्दभरी आँखें,

बर्फ़-सी पिघलती है, बहती हैं और  कहती हैं अभी भी,

तुम्हारी वह मनोहर " आसमानी " बातें

अंधियारे के निज एकान्त में भटकती सूखी राख-सी 

झर-झर जाती हूँ मैं

 

खोखले हो चुके हैं अब शब्दों के स्वर

ठिठुरती है मौन की अनुगूँज, शून्य की प्रतिध्वनि में

गहरे कहीं तैरते-उतरते भीतरी गढ्ढों में,

कम्पनमय शून्य के पीछे के परदों में,

संघर्षी रातों में,

कैद है- धुएँ की लकीरों में उभरती तुम्हारी आकृति

 

अकुला रही है क्यूँ धूल-भरे दीपक की लौ?

तुम्हारी परछाईं कैसी लम्बी हुई जाती है?

सच, तुम आ रहे हो क्या, फिर से करने कुछ बातें?

स्नेहमयी, रोमांचित, संवेदित शब्द सुनाने?

 

मैं भी ऐसे में सुन लेती हूँ तुम्हारी अजनबी हुई बातें...

" बिन्दो, तुम्हारी आँखों में यह आँसू नहीं शोभते "

" मेरी आँखों में देखो कौन है ? तुम, केवल तुम"

" मैं तुम्हारा हूँ बिन्दो, केवल तुम्हारा " ... सच ?

 

अब ज़िन्दगी की दलदल में धूप तपी राहों में

पता नहीं मैं, मैं न रही, या तुम, तुम न रहे?

बातें अब वह बातें न रहीं

या, उन बातों में अब शब्दों के बदल गए हैं अर्थ?

ऊब चुकी ज़िन्दगी की तनी हुई रग कट गई, या

कम्पनमय आस्था के अकस्मात कंगन टूट गए?

------------------

इस प्रस्तुति पर पुनः हार्दिक बधाई निवेदित है. सादर नमन....

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 7, 2017 at 6:08pm
आदरणीय विजय सर बड़ी ही गंभीर रचना है अतीत की सुनहरे लम्हों का जिक्र करती यह रचना हर इंसान की आपबीती सी लगती है इस रचना पर हार्दिक बढ़ाई स्वीकार करें सादर

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"प्रस्तुति को आपने अनुमोदित किया, आपका हार्दिक आभार, आदरणीय रवि…"
23 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय जयहिंद रायपुरी जी इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अखिलेश जी इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर"
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय, मैं भी पारिवारिक आयोजनों के सिलसिले में प्रवास पर हूँ. और, लगातार एक स्थान से दूसरे स्थान…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय जयहिन्द रायपुरी जी, सरसी छंदा में आपकी प्रस्तुति की अंतर्धारा तार्किक है और समाज के उस तबके…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अखिलेश भाईजी, आपकी प्रस्तुत रचना का बहाव प्रभावी है. फिर भी, पड़े गर्मी या फटे बादल,…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, आपकी रचना से आयोजन आरम्भ हुआ है. इसकी पहली बधाई बनती…"
Sunday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय / आदरणीया , सपरिवार प्रातः आठ बजे भांजे के ब्याह में राजनांदगांंव प्रस्थान करना है। रात्रि…"
Sunday
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173 in the group चित्र से काव्य तक
"सरसी छन्द ठिठुरे बचपन की मजबूरी, किसी तरह की आग बाहर लपटें जहरीली सी, भीतर भूखा नाग फिर भी नहीं…"
Saturday
Jaihind Raipuri joined Admin's group
Thumbnail

चित्र से काव्य तक

"ओ बी ओ चित्र से काव्य तक छंदोंत्सव" में भाग लेने हेतु सदस्य इस समूह को ज्वाइन कर ले |See More
Saturday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173 in the group चित्र से काव्य तक
"सरसी छंद +++++++++ पड़े गर्मी या फटे बादल, मानव है असहाय। ठंड बेरहम की रातों में, निर्धन हैं…"
Saturday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service