बर्फ़ीला मौन रिश्ते की आत्मा के फूलों पर
झुठलाती-झूठी अजनबी हुई अब बातें
स्नेह के सुनहरे पलों में हाथों में वेणी लिए
शायद बिना सोचे-समझे कह देते थे तुम ...
" फूलों-सी हँसती रहो, कोयल-सी गाती रहो "
" अब आज से तुम मेरी ज़िम्मेवारी हो "
और मैं झुका हुआ मस्तक लिए
श्रधानत, कुछ शरमाई, मुस्करा देती थी
कोई बातें कितनी जल्दी
इ..त..नी पुरानी हो जाती हैं
जैसे मैं और हम और हमारी
आपस में घुली एकाकार साँसें ...
सिहरते आँसुओं से डबडबाई बेसब्र दर्दभरी आँखें
पिघली हुई बर्फ़-सी बहती हैं, कहती हैं अभी भी
तुम्हारी वह मनोहर " आसमानी " बातें
अन्धकारमय निज एकान्त में भटकती
सूखी राख-सी झर-झर जाती हूँ मैं
भंगुर, खोखले हुए अब शब्दों के स्वर
ठिठुरती है मौन की अनुगूँज
शून्य की ध्वनिगुंजित प्रतिध्वनि
गहरे कहीं तैरते-उतरते भीतरी गढ्ढों में
कम्पनमय शून्य के पीछे के परदों में
कैद है, संघर्षी रातों में जिसे मैं झेल नहीं पाती
धुएँ की लकीरों में उभरती तुम्हारी आकृति
अकुला रही है क्यूँ धूलभरे दीपक की लौ
तुम्हारी परछाईं लम्बी हुई जाती है
सच, तुम आ रहे हो क्या फिर से करने कुछ बातें ?
स्नेहमय रोमांचित संवेदित शब्द सुनाने ?
मैं भी ऐसे में सुन लेती हूँ तुम्हारी अजनबी हुई बातें ...
" बिन्दो, तुम्हारी आँखों में यह आँसू नहीं शोभते "
" मेरी आँखों में देखो कौन है ? तुम, केवल तुम "
" मैं तुम्हारा हूँ बिन्दो, केवल तुम्हारा " ... सच ?
अब ज़िन्दगी की दलदल में धूप तपी राहों में
पता नहीं मैं मैं न रही, या तुम तुम न रहे
बातें अब वह बातें न रहीं, बातों के ही साथ गईं
या, उन बातों में अब शब्दों के हैं अर्थ बदल गए
ऊब गई ज़िन्दगी की तनी हुई रग कट गई, या
कम्पनमय आस्था के अकस्मात कंगन टूट गए
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
//हमेशा की तरह आपकी ये रचना भी बेहद प्रभावशाली हुई है//
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मित्र समर कबीर जी
इस रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय महेन्द्र जी
आपने इस रचना पर प्रतिक्रिया के लिए इतना समय दिया, और अपने विचार दिए। इसके लिए और कविता की सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय मिथिलेश जी।
//गंभीर रचना है अतीत की सुनहरे लम्हों का जिक्र करती यह रचना हर इंसान की आपबीती सी लगती है //
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय आशुतोष जी
आदरणीय विजय निकोर सर, अतीत की स्वर्णिम स्मृतियों और वर्तमान की वेदना और उससे उपजे संत्रास को शाब्दिक करती इस गंभीर कविता ने कहीं भीतर तक हिला दिया है. एक अजीब सी टीस उठ रही है मन में. मष्तिष्क के किसी कोने में चुपके से एक भय व्याप रहा है. क्या जीवन के एकाकी क्षण इतनी पीड़ा, इतना संत्रास उपजा सकते है कि सुनहरे अतीत से संश्लिष्ट होता वर्तमान अंतस को उद्द्वेलित कर देता है. यह अवश्य है कि जीवन का संतुलन सुख-दुःख में समवेत निहित है किन्तु सुख आकार निरंतर लाघव होता हुआ दुःख को समानांतर विस्तार देता है. इस प्रस्तुति के निहितार्थ से अकस्मात् ही अपनत्व सा लगने लगा. संभवतः यही कारण भी है कि मैंने आपकी रचना का पुनर्पाठ अपनी सुविधानुसार करने की धृष्टता कर ली है. इस शानदार प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई प्रेषित करते हुए ही अपने अनुभवहीन मन की लालसा को संपूरित करने के क्रम में किये गए अपने पुनर्पाठ को क्षमा सहित निवेदित कर रहा हूँ-
बर्फीला मौन है-
रिश्ते की आत्मा के फूलों पर।
झुठलाती-झूठी अजनबी हुई अब बातें।
स्नेह के सुनहरे पलों में,
हाथों में वेणी लिए,
शायद बिना सोचे-समझे कह देते थे तुम ...
" फूलों-सी हँसती रहो, कोयल-सी गाती रहो "
" अब आज से तुम मेरी ज़िम्मेवारी हो"
और मैं नतमस्तक, श्रद्धानत, कुछ शरमाई-सी,
बस मुस्करा देती थी।
कुछ बातें कितनी जल्दी,
इ..त..नी पुरानी हो जाती हैं,
जैसे मैं, जैसे तुम,
और जैसे हमारी आपस में घुली एकाकार साँसें।
सिहरते आँसुओं से डबडबाई बेसब्र दर्दभरी आँखें,
बर्फ़-सी पिघलती है, बहती हैं और कहती हैं अभी भी,
तुम्हारी वह मनोहर " आसमानी " बातें।
अंधियारे के निज एकान्त में भटकती सूखी राख-सी
झर-झर जाती हूँ मैं।
खोखले हो चुके हैं अब शब्दों के स्वर।
ठिठुरती है मौन की अनुगूँज, शून्य की प्रतिध्वनि में।
गहरे कहीं तैरते-उतरते भीतरी गढ्ढों में,
कम्पनमय शून्य के पीछे के परदों में,
संघर्षी रातों में,
कैद है- धुएँ की लकीरों में उभरती तुम्हारी आकृति।
अकुला रही है क्यूँ धूल-भरे दीपक की लौ?
तुम्हारी परछाईं कैसी लम्बी हुई जाती है?
सच, तुम आ रहे हो क्या, फिर से करने कुछ बातें?
स्नेहमयी, रोमांचित, संवेदित शब्द सुनाने?
मैं भी ऐसे में सुन लेती हूँ तुम्हारी अजनबी हुई बातें...
" बिन्दो, तुम्हारी आँखों में यह आँसू नहीं शोभते। "
" मेरी आँखों में देखो कौन है ? तुम, केवल तुम।"
" मैं तुम्हारा हूँ बिन्दो, केवल तुम्हारा " ... सच ?
अब ज़िन्दगी की दलदल में धूप तपी राहों में
पता नहीं मैं, मैं न रही, या तुम, तुम न रहे?
बातें अब वह बातें न रहीं,
या, उन बातों में अब शब्दों के बदल गए हैं अर्थ?
ऊब चुकी ज़िन्दगी की तनी हुई रग कट गई, या
कम्पनमय आस्था के अकस्मात कंगन टूट गए?
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इस प्रस्तुति पर पुनः हार्दिक बधाई निवेदित है. सादर नमन....
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