माटी का दिया ......
जलता रहा
इक दिया
अंधेरों में
रोशनी के लिए
तम
अधम
करता रहा प्रहार
निर्बल लौ पर
लगातार
आख़िर
हार गया वो
धीरे धीरे
कर लिया एकाकार
अंधकार से
रह गया शेष
बेजान
माटी का दिया
फिर जलने को
अन्धकार में
गैरों के लिए
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज जी भाई साहिब प्रस्तुति एवम सृजनकर्ता के भावों को अपने स्नेहिल शब्दों से मान देने का हार्दिक आभार।
आदरनीय सुशील भाई , अच्छी लगी आपकी कविता , बधाइयाँ स्वीकर करें । भाव थोड़ा नकारात्मक है , पर मन हमेशा आशावादी रहता भी नहीं कभी निराशा भी छा जाती है ... मै इसे स्वाभाविक मानता हूँ ।
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति को अपने स्नेहिल शब्दों से मान देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय बृजेश जी, सुरेन्द्र जी एवम मिथिलेश वामनकर जी .... नेट के कारण विलम्ब हेतु क्षमा चाहता हूँ। सर सृजन दिया बाती और अन्धकार के मध्य संघर्ष को केंद्रित कर रचा गया। आ. बृजेश जी व् सुरेन्द्र जी के नज़रिये अगर देखें तो वो अपने स्थान पर सही हैं मैं भी उनके कथन को सही मानता हूँ। हो सकता है मैं अपने विचारों को वो आकार देने में समर्थ न हुआ होऊं फिर भी अपना पक्ष मैं इस प्रकार रखना चाहता हूँ।
माटी का दिया ......
जलता रहा
इक दिया
अंधेरों में
रोशनी के लिए
....... आ. यहां मेरा मूल भाव अँधेरे के लिए रोशन होना है , उसके लिए उसकी रोशनी का भाव लिए है मेरा दिया। मेरे विचार में यदि थोड़ा परोक्ष रूप से सोचें तो मेरे भाव के मूल में नकारात्मकता नहीं सकारात्मकता है क्योँकि वो जल तो अँधेरे को रोशन करने के लिए ही रहा है।
तम
अधम
करता रहा प्रहार
निर्बल लौ पर
लगातार
आख़िर
हार गया वो
धीरे धीरे
कर लिया एकाकार
अंधकार से
...... अब यहां पर मेरा भाव ये है की एक तरफ तो दिया अँधेरे को रोशन करने के लिए जल रहा है दूसरी तरफ अँधेरा उसके मूल भाव को तिरिस्कृत कर अपनी तासीर से मजबूर दिए पर हर पल हावी होने के लिए अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। अपनी रोशनी के अंतिम बिंदु तक दिया जलता है लेकिन अन्धकार के बढ़ते प्रभाव के आगे हार जाता है और गहरे अन्धकार में खो जाता है। यहां एकाकार से मतलब अन्धकार में खोना है।
रह गया शेष
बेजान
माटी का दिया
फिर जलने को
अन्धकार में
गैरों के लिए
.... अब यहां मेरा भाव नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर जाता है। हार के भी वो फिर से अन्धकार को रोशन करना चाहता है।
आदरणीय बस इस सन्दर्भ में मुझे इतना ही कहना है। हो सकता है आप संतुष्ट हों या हो सकता है आप संतुष्ट न हों लेकिन मैं अपनी तासीर से नकारात्मक विचारों का पक्षधर नहीं हूँ। प्रतीकों का प्रयोग सृजन को बल प्रदान करने के लिए , उसके सौंदर्य को बढाने के लिए , भावों को अलंकृत करने के लिए मैं करता हूँ।
आ. बृजेश जी , आ. सुरेन्द्र जी एवम आ. मिथिलेश वामनकर जी इस प्रस्तुति पर बस मैं इतना ही कह सकता हूँ। हम सब यहां सीखने के लिए ही हैं ... . मेरा सृजन मेरे भाव मेरा वक्तव्य यदि आपको संतुष्ट नहीं कर पाया तो इसके लिए मुझे खेद है। ..... सदर
आदरणीय सुशील सरना सर, इस प्रस्तुति पर आदरणीय बृजेश जी और आदरणीय सुरेन्द्र जी ने कुछ प्रश्न किये हैं. आपके उत्तर के पश्चात् ही प्रस्तुति पर प्रतिक्रिया देना उचित होगा. सादर
क्षमा! यह एक नकारात्मक कविता है. इस विचार के मूल में ही दोष है. रौशनी एक उम्मीद है और इस उम्मीद का सबसे बड़ा प्रतीक दिया है. दिया रौशनी के लिए नहीं जलता, रौशन करने के लिए जलता है.लौ, अँधेरे, अन्याय के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक है. महोदय, लौ अँधेरे से एकाकार नहीं होती. लौ का विलुप्त होना, अँधेरे के सामने घुटने टेकना नहीं है. अँधेरे के खिलाफ संघर्ष सतत जारी है, जुगनू, दिया, चाँद, सूरज, विचार, शब्द आदि-आदि के माध्यम से. in बड़े प्रतीकों के साथ इस तरह का व्यवहार मुझे उचित नहीं लगता. बाकी आप सब विद्वान शायद मुझसे सहमत न हों.
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