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आदरणीय जय नित भाई , गज़ल भी खूबसूरत कही है आपने और आ. समर भाई जी ने इस्लाह भी बहुत बढिया कर दी है , मेरे खयाल से और कुछ सोचने के लिये नही रह जाता ।
मोजिज़ा के अर्थ को बारीकी से समजह्ने के लिये आपको मेरी गज़ल जो अभी लिस्ट मे है एक बार देख लेनी चाहिये , मैने भी मोज़िजा का उपयोग किया था , जिसे बदल दिया !
गज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।
आदरणीय जय्नित जी ..शानदार ग़ज़ल हुयी है आधुनिकता के नशे में डूब कर
हर बशर अब जानवर होने को है
लहलहाने को है फ़स्ल अश्क़ों की "जय"
रेत पर कोई हुनर होने को है इन दोनों शेरो के लिए बिशेस रूप से बधाई स्वीकार करें सादर
आदरणीय जयनित जी, बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. बधाई. आदरणीय समर कबीर जी की इस्लाह को मिसरों की तार्किकता के आधार पर विचार कीजियेगा. सादर
आदरणीय समर साहिब आपका सुझाव सभी के काम आएगा ..धन्यवाद जो आपने सटीक टिप्पणी की....
आदरणीय समर कबीर जी. बहुत शुक्रिया आपके तुजुर्बे से हम सब को फायदा मिल रहा है... यूँ ही हमारा मार्ग दर्शन करते रहें
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