ये ,कैसा घर है ....
ये
कैसा घर है
जहां
सब
बेघर रहते हैं
दो वक्त की रोटी
उजालों की आस
हर दिन एक सा
और एक सी प्यास
चेहरे की लकीरों में
सदियों की थकन
ये बाशिंदे
अपनी आँखों में सदा
इक उदास
शहर लिए रहते हैं
ये
कैसा घर है
जहां सब
बेघर रहते हैं
उजालों की आस में
ज़िन्दगी
बीत जाती है
रेंगते रेंगते
फुटपाथ पे
साँसों से
मौत जीत जाती है
बेरहम सड़क है
भूख की तड़प है
हर मौसम एक सा है
न रात की चिंता है
न सहर का डर है
खुशियों के शानों पर
यहां अश्क ही बहते हैं
ये
कैसा घर है
जहां
सब
बेघर रहते हैं
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशसित
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी रचना के भावों अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार। कुछ दिनों से अस्वस्थ होने के कारण आभार व्यक्त करने में विलम्ब हेतु क्षमा चाहूंगा।
आदरणीय विजय निकोर जी रचना के भावों अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार। कुछ दिनों से अस्वस्थ होने के कारण आभार व्यक्त करने में विलम्ब हेतु क्षमा चाहूंगा।
आदरणीय सुशील भाई , सताये हुओं की ज़िन्दगी पर अच्छी कविता कही है , हार्दिक बधाइयाँ ।
बहुत ही सुन्दर रचना लिखी है। आपको हार्दिक बधाई, भाई सुशील जी
आदरणीय laxman dhami जी प्रस्तुति पर आपके स्नेहिल शब्दों का हार्दिक आभार।
ऑ० भाई सुशिल जी बेहतरीन यथार्थवादी रचना हुई है हार्दिक बधाई स्वीकारें .
आदरणीय Mohammed Arif जी प्रस्तुति पर आपके स्नेहिल शब्दों का हार्दिक आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति को आपने जो आत्मीय मान दिया उसके लिए आपके तहे दिल से शुक्रिया। सर इंगित त्रुटि को मैंने संशोधित कर दिया है। इस हेतु आपका हार्दिक आभार।
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