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***एक उलझन*** (लघुकथा)राहिला

"किस दुनियाँ में विचर रही हो।सोचती हो अपने बूते पर आसमान छू लोगी।यहाँ स्थापित लोगों की कृपा दृष्टि के बगैर कोई टिका है आज तक।"अंदाज में उपहास था। जिसे उसने खूब समझा।
"पता नहीं सर! सच क्या है ?बड़ी उलझन में हूँ ।एक तरफ आपकी अनुभवी सोच और दूसरी तरफ मेरी आपबीती।"
"मतलब मेरी बात पर शक है ।इतने सालों में हासिल किया है कुछ ?अब एक बार वह करो जो इन्होने किया ।"मेले में सजी नये लेखकों की पुस्तकों की ओर इशारा करते हुए ,उन्होंने अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया।
"कहने का तात्पर्य आपका हाथ मेरे सिर पर नहीं होगा तो मंजिल मुश्किल है?"
"मेरा नहीं ,मेरे जैसे किसी का भी!बात को गलत अंदाज में मत ले जाओ ।मुझे खेद है तुम्हारे संकुचित सोच पर।"
"नहीं सर!आप मेरी बात को मेरे विचार ना जाने ।आपसे मैंने पहले ही कहा एक उलझन है इसलिए समझ नही पा रही हूँ सही क्या है?"उसके चेहरे से साफ समझ आ रहा था कि वाकई किन्हीं दो बातों के बीच फसी है।
"तो कहो,जरा मैं भी तो सुनु "अबकी उनकी बात में उपहास नहीं ,बल्कि गंभीरता थी।
" तो शुरू से सुने ,पूरी लगन से डाक्टरी की तैयारी की थी,चयन भी हो गया लेकिन अचानक अध्यापक बन गयी ।जिसका ना ही मैंने आवेदन किया,ना ही सोचा। दूसरों ने आवेदन किया और फिर उनकी इच्छा का मान रखते हुए, मैंने ना चाहते हुए भी साक्षात्कार दिया। इसके बाद अचानक मेरी मंजिल ही बदल गयी।"
"तो इससे क्या साबित हुआ?"
"नहीं ...!केवल इससे नहीं,फिर जिसे चाहा वह बस मेरा होने ही वाला था।सब कुछ सब की मर्जी से हो रहा था। अचानक वह सब नहीं हुआ। कोई और ही जीवन साथी बन गया।जिसका सोचा ही नहीं था।"
"तो कहना क्या चाह रही हो मैं अब भी नहीं समझ पाया।"
"सर !जब सब कुछ करना उसी को है जो उसने ठान रखा है तो मुझे लगता है मुझे बस अपना काम करना चाहिए ।क्या फर्क पड़ता है,दुनियां में किसी का हाथ मेरे सिर पर है या नहीं।"

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Rahila on February 16, 2017 at 8:04pm
बहुत शुक्रिया आदरणीय सर जी!सादर
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 11, 2017 at 4:28pm

अादरणीय राहिला जी आपने एक अच्‍छी लघ्‍ाुकथ्‍ाा रचा है आपको भूरिशः बध्‍ााई

Comment by Rahila on February 11, 2017 at 4:18pm
आदरणीय सुनील जी!तारीफ़ और हौसला अफजाई कोई आपसे सीखे ।आपकी समीक्षा अक्सर मेरे लिए मार्गदर्शक का भी काम करती है।इसलिये आपकी रचना पर उपस्थिति मेरे लिए हर्ष का विषय होती है। सादर
Comment by Rahila on February 11, 2017 at 4:13pm
आदरणीया राजेश दी!आपकी टिप्पणी का सदैव मुझे इंतेजार रहता है ।आपको रचना पसंद आई मेरा लेखन सार्थक हुआ। सादर
Comment by Rahila on February 11, 2017 at 4:10pm
बहुत शुक्रिया प्रिय नीता दी!आपकी स्नेहिल संबोधन और हौसला अफजाई मेरे लेखन में जोश भर देती है। सादर

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Comment by rajesh kumari on February 9, 2017 at 6:26pm

होता तो ये है की कर्म करने से पहले लोग फल की इच्छा करने लगते हैं  जरूरी नही फल मिले या न मिले क्यूंकि सब ऊपर वाले के हाथ में इंसान को बस कर्म पर ध्यान देना चाहिए बाकी फेंसले वो लेगा बहुत खूब नया विषय लेकर शानदार सन्देश छोड़ती हुई लघु कथा बहुत बहुत बधाई प्रिय राहिला जी 

Comment by Nita Kasar on February 9, 2017 at 4:17pm
सब पहिली से ही निर्धारित है,बस कर्म करते जाना है।दार्शनिक लहजे से लबरेज़ कथा के लिये बधाई प्रिय राहिला जी दिल से ।शुरू में लगा क्या कहना चाहती है धीरे धीरे प्याज़ की परतों की तरह कथा स्पष्ट हो गई ।
Comment by Rahila on February 9, 2017 at 2:23pm
बहुत,बहुत शुक्रिया रचना को पसंद करने और मेरा हौसला बढ़ाने के लिए आदरणीया दीदी!सादर
Comment by pratibha pande on February 9, 2017 at 1:39pm

//they also serve, who only stand and wait//  Milton  'On his blindness',   कुछ इसी तर्ज में कही ये कथा   गहरे तक असर कर रही है   बहुत खूब   बधाई प्रिय राहिला जी   

Comment by Rahila on February 9, 2017 at 12:33pm
आदाब जनाब कबीर साहब!बहुत ,बहुत शुक्रिया आपका ।आपने अपना कीमती वक़्त रचना को दिया और सराहा। सादर

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