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आदरणीय पंकज भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ ! ग़ज़ल पर चर्चा भी खूब हुई है , मुझे भी लगता है , आनी काफिया तर लें तो और बेहतर -- उला पर आ. राब बली भाई जी ने सलाह दी है , सानी पर मै प्रयास कर रहा हूँ , देखियेगा - सही लगे तो ?
कब रात हुई कब सुब्ह हुई, इस पत्थर ने कब है जानी
जब ताप चढ़ा ग़म का बेहद , तब धड़कन ने की मनमानी ....
आदरणीय पंकज जी आंनद आया आपकी गजल पढ़ कर बधाई स्वीकार करें । मतले पर हमारा भी विचार राम बली जी से मिलता हुआ है अभी उला का ही शब्द केवल काफिया का तुकांत मिलाने के लिये ही लग रहा है अगर ई काफिया ही रखें तो सुझााव है इसी मिसरे में उतरार्द्ध और पूर्वाद्ध को बदल सकते है जिससे ही शब्द का अटकाव नहीं लगेगा पर आनी का कफिया इसे और बहतर बना सकता है । इसके बाद आदरणीय गोपाल नारायण जी का कथन सर्वोपरि है कि शायर का अपना अलग नजरिया है
ले जाना है तो ले जाओ, ये कुंडल कलम व ग़ज़ल कवच
इतिहास भला कैसे बदले, हर युग में कर्ण परम् दानी ये शेर हमें बहुत पसंद आया इसके लिये सराहना अलग से लीेजिये ।
आ० पंकज जी , बेहतरीन गजल हुयी है , मुझे आ० रामबली जी की बात भी ठीक लगती है . पर गजलकार का अपना नजरिया है . .
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