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रात ढली मुझे पिला और जहर और जहर
इश्क ही ढाता है सदा और कहर और कहर
गाँव से भी दूर हुयी सुरमई माटी की गमक
दीखता हर ओर जिला और शहर और शहर
मौसम अब यार मुझे खुशनुमा लगते है सभी
दिल में उठती है लहर और लहर और लहर
रात ये बचपन की बड़ी सादगी में बीत गयी
अब है जवानी की सहर और सहर और सहर
जोश में सागर तू मचल आज है पूनम की कला
बीच लहर चाँद खिला और छहर और छहर
मन नहीं भरता है कभी साथ जो होता है तेरा
जाने की तू बात न कर और ठहर और ठहर
आज तेरी ओढ़नी से खेल रही सर्द हवा
बोल इसे दूर कही और फहर और फहर
(मौलिक /अप्रकाशित)
Comment
आदरनीय बड़े भाई , गज़ल अच्छी कही है आपने हार्दिक बधाइयाँ । मतले पर आपको सलाह आ. सुरेन्दर भाई दे ही चुके है , मै भी उनसे सहमत हूँ । सुधार लीजियेगा ।
हम आपकी रचना के कायल हो रहे हैं आपकी रचना में जो वास्तविकता है वह काबिले तारीफ है आपकी कल्पना की उड़ान सराहना चाहती है। बधाई हो
आ० कुशक्षत्रप जी, आपका कथन सही है मेरी लापरवाही से ' मुझे पिला'में बह्र गड़बड़ हुयी है , मैं इसे अवश्य सही कर लूंगा . शहर , जहर , बहर हिन्दी के स्वीकृत शब्द हैं . दीखता शब्द भी हिन्दी में बहु-प्रयुक्त है .आपकी सम्मति से बहर का फिर से परीक्षण कर लूंगा . आपने गजल में इतनी रूचि ली इसके लिए आभारी हूँ , सादर .
आ० ब्रजेश जी , बहुत शुक्रिया
आ० तेजवीर जी बहुत आभार
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन जी। हार्दिक बधाई।बेहतरीन गज़ल।
मन नहीं भरता है कभी साथ जो होता है तेरा
जाने की तू बात न कर और ठहर और ठहर
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