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ताले-चाबी वाले (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

रेल यात्रियों में से एक ताले-चाबी वाला कारीगर भी था, सो चल पड़ी चर्चा 'तालों' और 'चाबियों' की, नाना-प्रकार की 'तिजोरियों, सूटकेसों और अलमारियों'' की और कारगर विभिन्न प्रकार की 'चाबियों' की!

"तुम्हारी तो चाँदी है, हर ताला खोलने की असली जैसी नकली चाबी बना लेते होगे!" एक यात्री ने उस ताले-चाबी वाले से पूछा।

"हमारी रसोई का ही ताला खोलती हैं हमारी बनायी ये चाबियाँ जनाब, धंधे में अंधे होकर हम नाजायज़ काम नहीं करते!" उसने जवाब दिया ही था कि दूसरा यात्री बोल पड़ा- "सही कह रहा है वह! बात तो उनकी करिये जो सरकारी ख़ज़ानों, देश की सम्पत्ति और सम्पदा पर 'ताले' लगाते हैं और फिर अपनी 'चाबियों' से ही उन्हें समय-समय पर खोलकर लूटते रहते हैं! ग़रीबों के पेट पर 'ताले' लगाते हैं!"

पास ही बैठा एक मुरझाये से चेहरे वाला यात्री बोला- "पेट पर ताले ही नहीं लगाते साहब.... लोग तो हमारी इज़्ज़त-आबरू वाले ताले 'तोड़ते' भी हैं, न उमर देखते और न ही धरम! चाबी नई हो, पुरानी हो, या भले ही जंग लगी हुई हो, चोले उतारकर लोग काम पर लगा देते हैं!"

थोड़ी देर के लिए वहां सन्नाटा सा छा गया। एक सहयात्री की नज़र अखबार में छपी बाल-यौन-शोषण के समाचार पर ठहर गई।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on March 1, 2017 at 3:33pm
हौसला अफ़जा़ई हेतु सादर हार्दिक धन्यवाद आदरणीय नीता कसार जी व आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 1, 2017 at 3:24pm

आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने. हार्दिक बधाई. सादर 

Comment by Nita Kasar on March 1, 2017 at 6:41am
बड़ी बेबाकी से आपने आज की व्यथा उकेर कर रखी है ।वाकई आज समाज में व्याप्त जवंलंत समस्या है बधाई आपको आद० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी ।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on February 28, 2017 at 6:37am
मेरे इस प्रयास को पसंद करने, अनुमोदन व प्रोत्साहन देने के लिए सादर हार्दिक धन्यवाद आदरणीय विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी जी , जनाब मोहम्मद आरिफ साहब व जनाब डॉ. आशुतोष मिश्रा जी।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 26, 2017 at 10:31pm

क्या बात सर! गजब .

//पास ही बैठा एक मुरझाये से चेहरे वाला यात्री बोला- "पेट पर ताले ही नहीं लगाते साहब.... लोग तो हमारी इज़्ज़त-आबरू वाले ताले 'तोड़ते' भी हैं, न उमर देखते और न ही धरम! चाबी नई हो, पुरानी हो, या भले ही जंग लगी हुई हो, चोले उतारकर लोग काम पर लगा देते हैं!"//

सत्य वचन.

बधाई स्वीकार करें

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 26, 2017 at 3:48pm
आदरणीय शेख जी आप इतने कम शब्दों में अपनी बात कह देते है बिलकुल गागर में सागर की तरह हतप्रभ रह जाता हूँ समाज के इस दुखद पहलू पर मानवीय सम्बदना जगाने का आपका यह प्रयास पूर्णतया सार्थक है ढेर सारी बधाई के साथ सादर
Comment by Mohammed Arif on February 26, 2017 at 9:28am
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,व्यंग्यपूर्ण लघुकथा बधाई स्वीकार करें ।

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