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ग़ज़ल (चढ़ी है एक धुन मन में पढ़ेंगे जो भी हो जाए)

1222 1222 1222 1222

चढ़ी है एक धुन मन में पढ़ेंगे जो भी हो जाए,
बड़े अब इस जहाँ में हम बनेंगे जो भी हो जाए।

कोई कमजोर ना समझे नहीं हम कम किसी से हैं,
सफलता की बुलन्दी पे चढ़ेंगे जो भी हो जाए।

हमारे दरमियाँ जो भेद कुदरत का बड़ा गहरा,
बराबर उसको करने में लगेंगे जो भी हो जाए।

बहुत देखा हिक़ारत से न देखो और अब आगे,
नहीं हक जो मिला लेके रहेंगे जो भी हो जाए।

जमीं हो आसमां चाहे समंदर हो या पर्वत हो,
मिला कदमों को तुम से हम चलेंगे जो भी हो जाए।

भरेंगे फौज को हम भी चलेंगे संग सैना के,
वतन के वास्ते हम भी लड़ेंगे जो भी हो जाए।

हिमालय से इरादे हैं अडिग विश्वास वालीं हम,
'नमन' हम पूर्ण मन्सूबे करेंगे जो भी हो जाए।


मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by रामबली गुप्ता on March 15, 2017 at 6:14am
बहुत ही सुंदर आदरणीय भाई वासुदेव शरण जी। हर शेर मन को प्रभावित करता है। बेहतरीन भावों से सजी इस ग़ज़ल के लिये। बधाई स्वीकारें।सादर
Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on March 10, 2017 at 8:29am
आदरणीय समर साहिब बहुत शुक्रिया।

बहुत देखा हिक़ारत से नहीं अब और गुंजाइश,
Comment by Samar kabeer on March 9, 2017 at 9:03pm
आपकी मुहब्बतों का शुक्रिया ।
'हिक़ारत से सकोगे ना कभी तुम देखने आगे'
इस मिसरे पर आप मेरा इशारा शायद समझ नहीं सके,मेरे कहने का अर्थ ये है कि इसमें व्याकरण दोष है,आप जो भाव पेश करना चाहते हैं वो स्पष्ट नहीं हो सके,सानी मिसरे के हिसाब से ऊला मिसरे में धमकी होना चाहिये जो नहीं है,मेरे ख़याल से ऊला मिसरा यूँ होना चाहिये :-
"हिक़ारत से न देखो तुम हमें बस याद ये रखना
नहीं हक़ जो मिला लेके रहेंगे,जो भी हो जाए"
वैसे आपके विकल्प सुरक्षित हैं,ये मात्र सुझाव है,उम्मीद है मेरी बात आप समझ लेंगे ।
Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on March 9, 2017 at 5:51pm
आदरणीय गिरिराज जी बहुत आभार। ग़ज़ल में समर साहिब और आपने जो कमियाँ बताई उनका सुधार करने का प्रयास किया है। यह ग़ज़ल सुधार के बाद प्रेषित की गई है।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 9, 2017 at 11:30am

आदरनीय वासुदेव भाई , अच्छी गज़ल कही है , बधाइयाँ स्वीकार करें । आदरनीय समर भाई जी की बातों का ख्याल कीजियेगा ।  एक बात और --

मिला कन्धा तुम्हारे संग डटेंगे जो भी हो जाए -- ये मिसरा भी आपका बे बहर है -- आपने , संग  को 2 मात्रिक माना है जबकि इसे 21 में बान्धना चाहिये था --  अनुस्वार वाले व्यंजन को 2 लिया जाता है -- जैसे रंग - रं = 2, ग =1 ।

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on March 8, 2017 at 7:00pm
आदरणीय समर साहिब सर्वप्रथम तो आपके अच्छे स्वास्थ्य की बधाई और शुभकामना।
हिकारत से सकोगे ना कभी तुम देख अब आगे,
नहीं हक जो मिला लेके रहेंगे जो भी हो जाए।
मेरा भाव यहाँ था कि नारियाँ पुरुष समाज से कह रही हैं कि अब और हमें उपेक्षा से तुम नहीं देख सकते और जिस हक़ की हम अधिकारिणी थी वह हक़ लेके रहेंगी।
जमीं हो आसमाँ चाहे
वहाँ वाली ही है क्योंकि ग़ज़ल में नारि जाती अपना जज्बा प्रगट कर रही है। परन्तु वालीं ज्यादा ठीक रहेगा। आपकी टिप्पणी के बाद इस ओर ध्यान गया है।
Comment by नाथ सोनांचली on March 8, 2017 at 4:21pm
आदरणीय बासुदेव शरण अग्रवाल जी सादर अभिवादन। ग़ज़ल पर आपकी बेहतरीन प्रयास, शेष उस्ताद समर साहिब ने कह ही डाला है। मेरी शैर दर शैर आपको दाद और मुबारकबाद पेश हैं।सादर
Comment by Samar kabeer on March 8, 2017 at 4:02pm
जनाब बासुदेव अग्रवाल'नमन'जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

'हिक़ारत से सकोगे ना कभी तुम देख अब आगे'
इस पँक्त का अर्थ नहीं समझ सका,दूसरी बात 'तुम'शब्द के साथ 'देख'शब्द दोषपूर्ण है, और सानी से इसका रब्त भी नहीं है,देखियेगा ।

'ज़मीं हो आसमाँ फिर हो समंदर हो या पर्वत हो'
इस मिसरे में 'फिर'शब्द भर्ती का है, ये मिसरा यूँ कह सकते हैं:-
"ज़मीं हो आसमाँ हो या समंदर हो कि पर्वत हो"
मक़्ते के ऊला मिसरे में 'वाली'या 'वाले'?
Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on March 8, 2017 at 2:19pm
आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी आपने ग़ज़ल में गहराई से शिरकत कर हौसला आफजाई की आपका बहुत आभार।
आदरणीय बह्र के विषय में भी इशारा देते तो मैं सुधार की कोशिस करता।
Comment by Mohammed Arif on March 8, 2017 at 12:37pm
आदरणीय वासुदेव अग्रवाल जी आदाब,बहुत बेहतरीन ग़ज़ल कही आफने । हर शे'र लाजबवब है । शे'र दर शे'र के साथ मुबारकबाद पेश कृता हूँ । बाक़ी बह्र के संदर्भ में विद्वजजन अपनी राय देंगे ।

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