बहा तुमको लिए जाती थी जो वो धार भी हम थे
हमी साहिल तुम्हारी नाव के पतवार भी हम थे
निगल जाता सरापा तुमको वो तूफ़ान था जालिम
खड़े तनकर उसी के सामने दीवार भी हम थे
मुक़द्दस फूल थे मेरे चमन के इक महकते गर
छुपे बैठे हिफाज़त को तुम्हारी ख़ार भी हम थे
किया घायल तुम्हारा दिल अगर इल्जाम भी होता
तुम्हारा दर्द पीने को वहाँ गमख्वार भी हम थे
रिवाजों की बनी जंजीर ने गर तुमको बांधा था
वहाँ मौजूद उसको काटने तलवार भी हम थे
अगर ये पूछते उससे तुम्हारा दिल भी कह देता
चुराया आँख का काजल भले शृंगार भी हम थे
ज़माने की बिछाई धूप में तपना पड़ा तुमको
मुकम्मल छाँव देने को तुम्हें अश्जार भी हम थे
कभी अपनी मुहब्बत को अगर गिनते गुनाहों में
मुक़र्रर हर सज़ा के वास्ते हक़दार भी हम थे
अगर तुम दिल्लगी से खेलते हम से तो क्या होता
तुम्हारी जीत भी हम थे तुम्हारी हार भी हम थे
--------मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० महेंद्र कुमार जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका बहुत बहुत शुक्रिया |
आद० गिरिराज जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया कल से नेट खराब था मोबाईल से ओबीओ पर काम नहीं हो पाता इस लिए पोस्ट पर आने में विलम्ब हुआ |मिसरे पर आपकी इस्स्लाह स्वागतीय है इसको संशोधित कर लूँगी आपको व् समर भाई जी को दिल से धन्यवाद देती हूँ |
शुक्रिया ... आदरणीय समर भाई ..
आदरणीया राजेश जी , खूब सूरत गज़ल के लिये हृदय से बधाइयाँ .... आ. समर भी जी इस्लाह के बाद गज़ल और अच्छी हो गयी है
निगल जाता सरापा तुमको वो तूफ़ान था जालिम
खड़े तनकर उसी के सामने दीवार भी हम थे
बचाया जिसने तूफ़ाँ से वो इक दीवार भी हम थे --- ऐसा कहने से ' भी ' भर्ती का नही लगेगा , ... देखियेगा ...आ. समर भाई जी ।
आद० समर भाई जी ,आपकी समीक्षा से बहुत सी बातें उभर कर आई हैं जिस तरफ ध्यान ही नहीं गया वो सब तो मैं ठीक कर लूँगी पर ये ग़ज़ल मुझे बहुत प्रिय है जैसे भी इसको संशोधित करके पुनः पोस्ट करती हूँ दिल से बहुत बहुत आभार भाई जी
'निगल जाता सरापा तुमको वो तूफ़ान था ज़ालिम
खड़े तनकर तुम्हारे सामने दीवार भी हम थे'-------इसमें स्पष्ट नहीं हुआ क्या गड़बड़ है भाई जी ----तूफ़ान को रोकने के लिए सामने तन कर दीवार की तरह खड़े हो जाना ये भाव तो पूरा स्पष्ट है मिसरे में
आद० बासुदेव जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हो गया दिल से बहुत बहुत आभार आपका सादर
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