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सुन्दरी सवैया (मापनीयुक्त वर्णिक)
वर्णिक मापनी - 112 X 8 + 2
निकले घर से नदिया लहरी शुचि शीतलता पहने गहना है|
चलते रहना मृदु नीर लिए हर मौसम में उसको बहना है|
कटना छिलना उठना गिरना निज पीर सभी हँसके सहना है|
अधिकार नहीं कुछ बोल सके अनुशासन में उसको रहना है|
खुशबू जिसमे सच की बसती उससे बढ़के इक फूल नहीं है|
जननी रखती निज पाँव जहाँ उससे शुचि पावन धूल नहीं है|
जिसके रहते अरि फूल छुए असली समझो वह शूल नहीं है|
जिसको करके पछताव करे मन ग्लानि करे वह भूल नहीं है|
बनना यदि है कुछ जीवन में कुछ दूर अभी तुमको चलना है|
जलती उर में नव आग लिए नित सूरज सा तुमको जलना है|
तनका गहना बनता तब ही जब स्वर्ण कहे उसको गलना है|
यह बात धरो मन में अपने सबका अभिमान यहाँ ढलना है|
कविता उपजे मन में तब ही जब शब्द मिले सदभाव मिले हों|
खुशबू बसती उस आँगन में जिसमे मनभावन फूल खिले हों|
मन बीच वही पनपें रिश्ते जिनमे बसते शिकवे न गिले हों|
इक राग तभी सधके निकले जिसके न कहीं सुर ताल हिले हों|
--मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
खूब सुन्दर रचनाए
आद० समर भाई जी,आपको ये सवैये पसंद आये मेरा लेखन कर्म सार्थक हो गया दिल से आभार आपका सादर
आद० बासुदेव अग्रवाल जी ,आपको छंद पसंद आये मेरी महनत सफल हो गई दिल से आपका बहुत बहुत आभार सादर
आद० मोहम्मद आरिफ जी ,आपको ये सवैया छंद पसंद आये आपका दिल से बहुत- बहुत आभार|
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