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गजल के पाँव दाबे हैं तभी कुछ सीख पाये हैं ...तंज-ओ-मज़ाह

१२२२/१२२२/१२२२/१२२२ 
.
हमारा साग बांसी है तुम्हारी भाजी ताजी है
जो इस में ऐब ढूँढेगा तो वो आतंकवादी है.
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गजल के पाँव दाबे हैं तभी कुछ सीख पाये हैं 
इसे पाखण्ड कहना आप की जर्रानवाजी है.
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तलफ्फुज को लगाओ आग, है ये कौन सी चिड़िया
हमारा राग अपना है हमारी अपनी ढपली है.
.
बहर पर क्यूँ कहर ढायें लिखे वो ही जो मन भाये
मगर इतना समझ लें, ये अदब से बेईमानी है.
.
शहर भर का जहर पीने के आदी हो चुके हैं हम
समझ लीजै यही हम जैसों की एरिस्टोक्रेसी है.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 13, 2017 at 6:29pm

शुक्रिया आ. समर सर 

Comment by Samar kabeer on April 13, 2017 at 6:01pm
जनाब निलेस'नूर'साहब आदाब,बहुत खूबसूरत गजल कही आपने,से'र दर से'र दाद के साथ मुबारकबाद पेस करता हूँ कबूल फरमाएं ।
----------
जनाब निलेश'नूर'साहिब आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मेरे एक दोस्त का शैर है :-
'बेरुख़ी दास्तान में लिक्खो
शाइरी की ज़बान में लिक्खो'
आपने इस शैर के कहन को अमली जामा पहना दिया,भरपूर तंज़ है भाई,पुनः बधाई इस प्रयास पर ।

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