बस चला जा रहा हूँ ...
मैं
समय के हाथ पर
चलता हुआ
गहन और निस्पंद एकांत में
तुम्हारे संकेत को
हृदय की
गहन कंदराओं में
अपने अंतर् के
चक्षुओं में समेटे
बस चला जा रहा हूँ
मैं
समय के हाथ पर
मधुरतम क्षणों का आभास
स्वयं का
अबोले संकेत में
विलय का विशवास
अपने अंतर् के
चक्षुओं में समेटे
बस चला जा रहा हूँ
मैं
समय के हाथ पर
वाह्य जगत के
कल ,आज और कल के
भेद से अनभिज्ञ
अंतर चक्षुओं के कोरों पर
ठहरे हुए
तुम्हारे संकेत के
प्रतिबम्ब को
अपने अंतर् के
चक्षुओं में समेटे
बस चला जा रहा हूँ
समय के हाथ पर
दो छोर
सफलता और असफलता
सदा जीवित रहते हैं
मगर किस और
कोई नहीं जानता ?
मैं
जीत-हार
सुख-दुःख
आदि-अंत के भय से
वाह्य चक्षुओं को बंद कर
स्वयं को
इन मिथ्याओं से मुक्त करता
तुम्हारे श्वासों की गंध
तुम्हारी कुंतल लटों की
कपोलों से होती
वार्ता की ध्वनि को
लक्ष्य मान
अपनी आकांक्षाओं के अंकुर
अपने अंतर् के
चक्षुओं में समेटे
बस चला जा रहा हूँ
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय vijay nikore जी रचना के भावों को अपनी सहमति देती प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया से अलंकृत कर उसका मान बढ़ाने का हार्दिक आभार।
//समय के हाथ पर
दो छोर
सफलता और असफलता
सदा जीवित रहते हैं
मगर किस और
कोई नहीं जानता ?//
बहुत कुछ सोचने को दे गई आपकी यह रचना। समय क्या है.... है भी कि नहीं ?
हार्दिक बधाई इस सुन्दर रचना को पोस्ट करने के लिए।
आद0 KALPANA BHATT जी रचना में निहित भावों को अपने आत्मीय शब्दों से मान देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय Mohammed Arif जी प्रस्तुति को अपने स्नेहिल शब्दों से आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय अनुराग जी रचना में निहित भावों को अपने आत्मीय शब्दों से मान देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी प्रस्तुति को अपने स्नेहिल शब्दों से आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय बृजमोहन स्वामी 'बैरागी' जी रचना के भावों को अपनी सहमति देती प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया से अलंकृत कर उसका मान बढ़ाने का हार्दिक आभार।
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