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ग़ज़ल नूर की -कहीं सजदा किया, पूजा कहीं पत्थर तेरा,

२१२२/११२२/११२२/२२
.
कहीं सजदा किया, पूजा कहीं पत्थर तेरा,
अपने अंदर ही मगर मुझ को मिला घर तेरा. 
.
मेरी आँखों में उतरना तो उतरना बचकर,
ख़ुद में तूफ़ान छुपाए है..... समंदर तेरा.  
.
यूँ ही पीछे नहीं चलता है ज़माना तेरे,
नापता रहता है क़द ये भी बराबर तेरा.
.
दिल को आदत सी पड़ी है कि ख़ुदा ख़ैर करे,
ढूँढ लाता है कहीं से भी ये नश्तर तेरा.

तर्क  अब इस से ज़ियादा मैं करूँ क्या ख़ुद को
ये अना तेरे हवाले ये मेरा सर ....तेरा.

हिचकियाँ ‘नूर’ तेरी बंद भला हों कैसे
नाम इक शख्स लिया करता है अक्सर तेरा. 
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 905

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Comment by Samar kabeer on April 20, 2017 at 3:18pm
जनाब निलेश'नूर'साहिब आदाब,ये ग़ज़ल भी उम्दा हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 20, 2017 at 2:43pm

शुक्रिया आ. तस्दीक़ साहब ....
इस   बहर में भी दिल नादाँ तुझे हुआ क्या है की तर्ज़ पर पहले रुक्न     में 21 को 11 करने की छूट है ....बस उसे ही इस्तेमाल में लाया गया है ..
.

कभी ग़ुंचा कभी शोला कभी शबनम की तरह

लोग मिलते हैं बदलते हुए मौसम की तरह (राना सहरी)


रही  बात दूसरे  शेर की... तो एक सँवाद है ....
मेरी आँखे मेरे  महबूब के चलते समंदर हुई हैं और ये मेरा उसे मशविरा  है  उसे .....
शाइरी है ....   दिल की बात है ..
आशा है स्पष्ट कर पाया.... 
आभार 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 20, 2017 at 2:34pm

शुक्रिया आ. रवि जी ....

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on April 20, 2017 at 2:24pm
मुहतरम जनाब नीलेश नूर साहिब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें --मतले के उला मिसरे की बह्र चेक कर लीजिए ,शुरुआत "कहीं"(12)से हो रही है ,शेर 2 के मिसरों में निस्बत की कमी नज़र आ रही है --सादर
Comment by Ravi Shukla on April 20, 2017 at 1:07pm

आदरणीय नीलेश जी कमाल के अशआर कहें है आपने शरे दर शेर दाद और मुबारक बाद कुबूल करें

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