तृषित ज़िंदगी ...
गाँव की
उदास और चुप शाम
टूटे छप्पर
हवाओं से
बिखरे तिनके
बयाँ कर रहे थे
ज़ुल्म आँधियों का
बिखरे
रोटियों के टुकड़े
और
टूटे हुए मटके में
दो हाथों के इंतज़ार में
ठहरा
तृप्ति को तरसता
अतृप्त पानी
कह रहा था
चली गयी
शायद
कोई ज़िंदगी
तृषित ही
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Mahendra Kumar साहिब सृजन को अपनी मधुर प्रशंसा से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
बढ़िया प्रस्तुति है आ. सुशील सरना जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
आदरणीया कल्पना भट्ट जी रचना के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
बहुत सुंदर प्रस्तुति आदरणीय सुशिल सरना जी हार्दिक बधाई |
आदरणीय narendrasinh chauhan जी सृजन के भावों को मान देने का हार्दिक आभार।
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति
आदरणीय मो. आरिफ साहिब सृजन को अपनी मधुर प्रशंसा से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय सादर |
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