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वो घर मेरा नहीं ...

वो घर मेरा नहीं ...


कितना कठिन है
अपने घर का पता जानना


लौट जाते हैं
हर बार
आकर भी
घर के पास से हम

किस से पूछें  पता 
सभी मुसाफिर लगते हैं
अपने घरों से
अंजाने लगते हैं

जानते हैं
ये घर
हमारा नहीं
फिर भी
उसको घर मानते हैं


टूट जाते हैं

जो पत्ते शज़र से
फिर वो शज़र
उनका घर नहीं रह जाता
हो जाते हैं
वो हवाओं के हवाले
घर के पास होते हुए भी
घर से दूर हो जाते हैं
कोई विकल्प नहीं
उनके पास
अपनी यात्रा को
जारी रखने के अतिरिक्त

इस अनंत आवागमन का
कब होगा अंत

ये न पंथ जानता है
न पंथी जानता है


ये मैं
किस घर की धरोहर है
ये व्योम की नाभि में छुपा
अक्षुण्ण कण का
अंतर ही जानता है


मैं तो बस
इतना ही जानता हूँ
कि मैं
जिस घर में
आता और जाता हूँ
वो घर
मेरा नहीं

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on June 5, 2017 at 3:42pm

आदरणीय विजय निकोर जी सृजन में निहित भावों को अपनी आत्मीय स्वीकृति से प्रोत्साहित करने का हार्दिक आभार।

Comment by Sushil Sarna on June 5, 2017 at 3:42pm

आदरणीय बृजेश कुमार जी प्रस्तुति आपके स्नेहिल शब्दों की आभारी है।

Comment by Sushil Sarna on June 5, 2017 at 3:39pm

आदरणीया कल्पना भट्ट जी रचना के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार। 

Comment by vijay nikore on June 3, 2017 at 3:15pm

अपनी रचना के माध्यम आप आजकल के सच को इतना पास ले आए। बहुत खूब। हार्दिक बधाई, आदरणीय सुशील जी।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 3, 2017 at 9:58am
बहुत ही उत्तम प्रस्तुति आदरणीय..सादर
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 3, 2017 at 7:17am

आहा | बहुत सुंदर , बहुत ही सही बात कही है आपने आज कल घर घर जैसे नहीं |

टूट जाते हैं

जो पत्ते शज़र से 
फिर वो शज़र 
उनका घर नहीं रह जाता 
हो जाते हैं 
वो हवाओं के हवाले 
घर के पास होते हुए भी 
घर से दूर हो जाते हैं 
कोई विकल्प नहीं 
उनके पास 
अपनी यात्रा को 
जारी रखने के अतिरिक्त

बहुत ही भावपूर्ण रचना हुई है आदरणीय सुशिल सरना जी हार्दिक बधाई

Comment by Sushil Sarna on June 1, 2017 at 2:38pm

आदरणीय मो. आरिफ साहिब सृजन को अपनी मधुर प्रशंसा से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।

Comment by Sushil Sarna on June 1, 2017 at 2:38pm

आदरणीय श्याम नारायण जी रचना के भावों को मान देने का हार्दिक आभार।

Comment by Mohammed Arif on June 1, 2017 at 8:29am
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब, बहुत ही भावुक रचना । आजकल घर घर जैसे कहाँ रह गये हैं । रैन बसेरा या पेइंग-गेस्ट के मानिंद हो गये हैं । घर की छवि उभरने पर सिरहन सी होती है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Shyam Narain Verma on May 31, 2017 at 3:46pm

इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई

सादर

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