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'डोम' (एक लघु-कथा )

"जीवन के आखिरी समय में, सही गलत का तो हम नही जानते बेटा, लेकिन इस बात का दुःख हमें अवश्य है कि हमारे कर्मो की सजा तुम भोग रहे हो। हो सके तो हमे क्षमा......।" बाबा की अंतिम बातों को सोच छोटे ठाकुर की आँखें नम हो गयी।

लकड़ियाँ अब आग पकड़ चुकी थी और चिता से उठती लपटो में बड़े ठाकुर की देह विलीन होने लगी थी। पास खड़ा 'भैरू' साथ साथ लकडियां व्यवस्थित कर रहा था जबकि बढ़ती आंच से बचने के लिए बाकी सभी लोग थोडा पीछे हटने लगे थे। 'कुंवरजी' पहले ही दूर जा खड़े हुए थे। आजीवन कारावास की सजा के बीच 'पैरोल' पर गाँव आये छोटे ठाकुर भांजे कर्ण का हाथ थामें पास ही खड़े इन्ही विचारों में खोये हुए थे।

"बाबा, क्षमा तो मैंने आपको बहुत पहले ही कर दिया था। हाँ आरोप अवश्य मैंने जानबूझकर अपने ऊपर लिया था क्योंकि मैं जानता था कि आप अपने प्रभाव से कानून के शिंकजे से बच निकलते और यही मैं नहीं चाहता था। आखिर 'तम्या' के प्रति अपने अपराध का प्रायश्चित भी तो मुझे ही.......।"

"मामाजी मैं जरा पंडितजी को बुला कर लाया।" कर्ण की आवाज ने उन्हें विचारों के दायरे से बाहर खीच लिया और वह एक दीवार का सहारा ले खड़ा होने की कोशिश करने लगे। कर्ण अभी पंडितजी तक पहुँच भी नहीं पाया था कि वह स्वयं को संभाल नहीं पाये और नीचे गिर पड़े।

पास ही खड़े भैरू ने उन्हें दौड़ कर संभाला और पास ही पूजा की थाली में रखे बर्तन से उन्हें पानी पिलाने की कोशिश करने लगा।
बाकि लोग अभी स्थिति को समझ भी नहीं पाये थे कि कुँवरजी की दंबग आवाज से वहां कोहराम मच गया। "अरे नीच! ये क्या अनर्थ कर दिया? रहा न 'डोम' का 'डोम' ही।" और कुछ क्षण में ही भैरू दो चार लोगों के लात घूंसे खाकर जमीन पर गिरा पड़ा था।
अब तक छोटे ठाकुर भी कुछ सम्भल गए थे। उन्होंने सबको शांत करने की कोशिश की और कर्ण से भैरू को पास बुलाने का आग्रह किया।

"बेटा भैरू!" उन्होंने दुःखी होकर कहा। "इनके व्यवहार के लिए मैं तुमसे क्षमा मांगता हूँ, तूने तो मेरा भला ही करना चाहा था पर ये लोग....।"

"नहीं नहीं... ठाकुर साहब !" उनकी बात बीच में ही काट भैरू ने हाथ जोड़ दिए। "आप तो हमारे अन्नदाता है और ठीक तो है, हम है भी तो नीच जात।"

अनायास ही छोटे ठाकुर के चेहरे पर दर्द की एक लंबी लकीर खिंच गयी। उन्होंने भैरू का हाथ पकड़ा और धीरे धीरे 'बाबा' की चिता के सम्मुख जा खड़े हुये। "बेटा! ये जात-पांत ये ऊंच-नीच, ये सब तो समाज के बनाये हुए ढोंग है वर्ना आदमी खुद अपने जीवन में ही जाने कितनी बार 'डोम' बनता है, कभी तन से और कभी मन से....।" अपनी बात कहते कहते उनकी नज़रें बाबा की जलती चिता की तेज होती लपटो पर जा रुकी जहां वर्षो पहले इसी जगह पर उन्होंने बाबा को डोम बनकर तम्या की देह को जलती लपटों में राख करते देखा था।...... वही तम्या जिसने अपने प्रेम को साधिकार पाना चाहा था जबकि वह स्वयं उसके दैहिक समर्पण को ही प्रेम का सम्पूर्ण सार समझ बैठे थे।

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by VIRENDER VEER MEHTA on July 19, 2017 at 5:21pm
आदरणीय भाई महेंद्र कुमार जी पहले तो कथा 'डॉम' पर आपकी समीक्षात्मक दृष्टी के लिए हार्दिक आभार... आपका ये प्रेम बना रहे, ऐसी ही कामना है.
आपने अपनी टिप्पणी में पात्रो के संख्या कुछ अधिक लगी, ऐसा कहा. पात्रो में केवल 'कुंवरजी' एक ऐसे पात्र है जिनका कथा से प्रत्यक्ष संबंध नहीं है अन्थया बाकी सभी पात्र तो कथा की मुख्यधारा में ही आतें है. ऐसा मुझे लग रहा है. बाकी आपकी अमूल्य राय के लिए अवश्य आभारी हूँ आदरणीय. सादर भाई जी
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on July 19, 2017 at 5:10pm
भाई आशीष यादव जी आपकी प्रोत्साहन देती टिप्पणी के लिए दिल से हार्दिक आभार....
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on July 19, 2017 at 5:09pm
आदरणीया कल्पना भट्ट जी लघुकथा 'डॉम' पर आपकी सुन्दर टिप्पणी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.... सादर आदरणीया.
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on July 19, 2017 at 5:07pm
भाई तेजवीर सिंह जी आपकी सुंदर और प्रोत्साहन देती टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार....
Comment by Mahendra Kumar on June 5, 2017 at 7:13pm

//ये जात-पांत ये ऊंच-नीच, ये सब तो समाज के बनाये हुए ढोंग है वर्ना आदमी खुद अपने जीवन में ही जाने कितनी बार 'डोम' बनता है, कभी तन से और कभी मन से...// इन शब्दों के माध्यम से समाज को सार्थक सन्देश देती इस बढ़िया लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए आ. वीर मेहता जी. मुझे पात्रों की संख्या कुछ ज़्यादा लगी. सादर.

Comment by आशीष यादव on June 5, 2017 at 1:03pm

अत्यंत मार्मिक कथा।  सब कुछ स्पष्ट। 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 2, 2017 at 2:56pm
Bahut badhiya katha hui hai aadrniya Veer ji . Marmik prastuti hai. Hardik badhayi aapko
Comment by TEJ VEER SINGH on June 2, 2017 at 12:52pm

हार्दिक बधाई आदरणीय वीर मेहता जी।बहुत मार्मिक प्रस्तुति।ग्रामीण परिवेश में फ़ैले ऊंच नीच के भ्रमजाल पर बेहतरीन कटाक्ष करती रचना। 

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