ट्रेन के चलते ही एक तरुण दैनिक यात्री द्वितीय श्रेणी के स्लीपर क्लास में दाखिल हुआ. आरक्षित श्रेणी के यात्री अधिकांशतः अपनी बर्थ पर अधपसरे हुए थे . एक बर्थ के कोने पर खाली जगह देखकर वह बैठने जा ही रहा था कि उस पर बैठे अधेड़ व्यक्ति ने गुर्राकर कहा –‘आगे बढ़ो, यह बर्थ रिजर्व है. .
तरुण बैठते-बैठते रुक गया और धीरे से बोला-‘ रिजर्व तो सारा डिब्बा है, मुझे बस ज़रा से जगह बैठने के लिये चाहिये. आधे घंटे बाद मेरा स्टॉप आ जाएगा. ’
‘नहीं बिल्कुल नहीं ‘- अधेड़ के सामने वाली बर्थ पर अधलेटे मोटे व्यक्ति ने आवेशित होकर कहा- ‘हम पैसे अपने आराम के लिए खर्च करते हैं ?‘
तरुण ने असहाय होकर गैलरी की ओर निगाह डाली कि शायद कोई और दैनिक यात्री दिख जाए तो उसके दावे को बल मिले, पर कोई नजर नहीं आया. उसने अंतिम प्रयास करते हुए कहा –‘ देखिये मैं दैनिक यात्री हूँ, हम रोज ही इस तरह यात्रा करते है, अभी आप ठीक से लेटे भी नहीं है, मैं बस ज़रा सी जगह में बैठ जाऊंगा .’
दैनिक यात्री के अनुरोध पर वे आग बबूला हो उठे. आखिरकार वह सहम कर चुप हो गया और बर्थ के सहारे खडा हो गया. उसकी यह हालत देखकर दोनों के चेहरे पर विजयिनी मुस्कान आयी. मोटे वाले ने ‘हिप हिप’ की आवाज निकाली. दोनों हंस पड़े.
अब तक ट्रेन की रफ़्तार कुछ तेज हो गयी थी. अचानक गेट पर एक जोरदार हलचल हुयी और चार जवान दैनिक यात्री तूफ़ान की तरह कम्पार्टमेंट में प्रविष्ट् हुए. कोई फ़िल्मी गीत गा रहा था . कुछ एक दूसरे को गरिया रहे थे . युवकों का यह दल वही आ गया जहाँ वह तरुण सहमा खड़ा था . एक ने तरुण को पहचान कर कहा- ‘ओये यार, तू खडा क्यों है, इतनी जगह है और तू बैठा नहीं .’
अब तरुण का साहस भी दूना हो चुका था. उसने दोनों यात्रियों की ओर इशारा करते हुए कहा –‘ ये लोग किसी सूरत बैठने ही नहीं दे रहे , कहते है बर्थ आरक्षित है .’
‘ए भाई साहिब, उठ कर बैठिये ‘- एक लम्बे वाले लड़के ने यात्रियों को चेतावनी देते हुए कहा
‘देखिये, आप लोग आगे जगह देख लीजिये हमारी तबियत ठीक नहीं है ‘-मोटे वाले ने रुखे स्वर में जवाब दिया .
‘ओये मोटे, ऐसी नौटंकिया हम रोज देखते हैं ‘- एक अन्य लड़के ने गुर्राकर कहा-‘सीधे उठता है या नहीं और बुड्ढे , तू भी उठ. हम यहाँ बैठकर ताश खेलेंगे .
दोनों यात्री बिना एक शब्द बोले उठ कर बैठ गए. अब तरुण यात्री के चेहरे पर वही विजयिनी मुस्कान उभरी. उसने भी मुख से वैसी ही आवाज निकाली- ‘हिप हिप ’
( मौलिक /अप्रकाशित )
Comment
जिसकी लाठी उसकी भैंस ! .. लेकिन यह तो जंगलराज का नमूना है न ! वैसे, डेली पैसेंजरों की दुर्दशा तभी होती है जब वे अकेले होते है. वर्ना रूट कोई हो, दिल्ली-अलीगढ़ या पटना-आरा या लखनऊ-कानपुर इनकी दबंगई अंतरराज्यीय स्तर पर बदनाम हो चुकी है.
आपकी कथा का पात्र इसके बावज़ूद निरीह-सा है. लगता है उसके जीवन का यह दौर नया-नया है. .. :-)
लेकिन इस प्रस्तुति पर हम एक पाठक के तौर पर क्या महसूस करें आदरणीय ? .. इस विधा के शिल्प आदि पर तो मैं कुछ कह पाने से रहा. कहा मान्य भी न हो. फिर भी, पटल पर प्रस्तुति हेतु धन्यवाद और हार्दिक शुभकामनाएँ, आदरणीय ..
सादर
आदमी दूसरे का साथ पाकर कैसे रंग बदलता है, इस बात को बहुत अच्छे से उकेरा है आपने अपनी रचना में आ. डॉ. गोपाल नारायन सर. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
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