मापनी २१२ २१२ २१२ २१२
रात दिन बस यही सोचता रह गया
पास आकर भी क्यों फासला रह गया
पत्थरों से लड़ाई कहाँ तक करे,
तोप का मुँह सिला का सिला रह गया
चढ़ गयीं परतें मुखोटे पे’ उनके कई,
बेखबर देखता आइना रह गया
वज्न वे रोज अपना बढ़ाते रहे,
और भीतर हृदय खोखला रह गया
सामना जब हुआ देखते रह गए,
प्यार अन्दर छुपा का छुपा रह गया
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
Comment
आदरणीय Saurabh Pandey जी त्रुटियों को सुधर लियाइ, आपके स्नेह के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आपका
अच्छी रचना हुई है आदरणीय बसंट भाई. बधाई स्वीकार करें.
सुधीजनों ने त्रुटि के प्रति अगाह कर दिया है. कृपया सुधार कर लें.
सादर
ह्रदय से आभार आपका आदरणीया KALPANA BHATT जी
उम्दा ग़ज़ल हुई है आदरणीय
आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आपका ह्रदय से आभार
ह्रदय से आभार आपका आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी अब देखिये इसे दुरस्त करने का प्रयास किया है
आदमी के मुखोटे पे परतें कई,
बेखबर देखता आइना रह गया
चढ़ गयीं परतें मुखोटे पे’ उनके कई..ये मिसरा भी देख लें
आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी त्रुटि इंगित करने हेतु बहुत बहुत शुक्रिया आपका,
बहर मापनी २१२ २१२ २१२ २१२ है
बहर देख लीजिये भाई
सादर
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