श्वासों का क्षरण ...
मैं
बहुत रोयी थी
अपने एकांत में
तेरे बाद भी
कई रातों तक
तेरे अंक में सोयी थी
तेरा जाना
एक घटना थी शायद
दुनियां के लिए
मगर
असंभव था
तुझे विस्मृत करना
मैं तेरे गर्भ के अंक की
पहचान थी
और तू
मेरे स्मृति अंक की श्वास
सच
कोई भी नहीं देख पाया
मेरे रुदन को
तूने कैसे देख लिया
शुष्क पलकों में
तू मुझसे कल
मिलने आयी थी
अपने अंक में
तूने मुझे सुलाया था
कितना आग्रह किया था
तुझसे लौट आने का
तू फिर आने का आश्वासन दे
मेरी शुष्क पलकों के किनारों पर
अपनी ममता की बूँद गिरा
चली गयी
मैं उस बूँद को अपनी हथेली में समेटे
हर रात
तेरे आने की प्रतीक्षा में
श्वासों का क्षरण
करती रही
माँ
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
भाव पूर्ण रचना | हार्दिक बधाई
आदरणीय बसंत कुमार जी अपनी स्नेहिल प्रतिक्रिया से सृजन को अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय Mahendra Kumar जी प्रस्तुति में निहित भावों को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।
वाह लाजबाब अल्फाज
"मैं तेरे गर्भ के अंक की पहचान थी और तू मेरे स्मृति अंक की श्वास" वाह! माँ-बेटी के पावन रिश्ते पर प्रस्तुत इस उम्दा रचना हेतु दिल से बधाई स्वीकार कीजिए आ. सुशील सरना जी. सादर.
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