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// आँखों में जब सोज़िश होने लगती है
रिम झिम रिम झिम बारिश होने लगती है
बाबू जी का साया सर से उठते ही
धरती की पैमाइश होने लगती है //
आपके हर एक शेर की अपनी ही खूबी है... ७ जुलाई को यह गज़ल पढ़ने के बाद इसके यह २ शेर तो जाने कब-कब खयालों में गूँजते रहे हैं .. कि जैसे आपकी गज़ल म्रेरे खयालों में खुद-ब-खुद पढ़ी जा रही है।
मंच को यह तोफ़ा देने के लिए आपको फिर से बहुत-बहुत बधाई, भाई समर जी।
जब जब भी मैं नाम तुम्हारा लिखता हूँ
हाथों में क्यूँ लरज़िश होने लगती है
आदरणीय समर कबीर साहिब आदाब , बहुत दिलकश अशआर लिखे हैं आपने ... नमन आपकी लेखनी को , आपकी कल्पना को ... इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिल से शे'र दर शे'र मुबारकबाद कबूल फरमाएं सर।
वाह! वाह!! वाह!!! क्या शानदार ग़ज़ल पढ़ने को मिली है आ. समर सर. मज़ा आ गया. इस ग़ज़ल के कई शेर मुझे मेरे बेहद क़रीब लगे. शेर-दर-शेर दाद के साथ मुबारकबाद पेश है. ईश्वर करे आप यूँ ही लिखते रहें. सादर.
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