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यहाँ के लोग महब्बत शदीद करते हैं

मफ़ाइलुन फ़इलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन

ये काम आज के एह्ल-ए-जदीद करते हैं
ग़ज़ल के मुँह पे तमांचा रसीद करते हैं

लगे हुए तो हैं पैहम इसी तग-ओ-दौ में
हमें वो देखिये किस दिन शहीद करते हैं

ये नफ़रतें तो महज़ आरज़ी हैं,सच ये है
यहाँ के लोग महब्बत शदीद करते हैं

मुसालहत की अगर आरज़ू है तुमको भी
तो आओ बैठ कर गुफ़्त-ओ-शुनीद करते हैं

वफ़ा से दूर तलक जिन को वास्ता ही नहीं
ये लोग उनसे इसी की उमीद करते हैं

तू भूल से भी "समर" मेरा ज़िक्र मत करना
वो मेरे नाम से नफ़रत शदीद करते हैं

____

एह्ल-ए-जदीद :- नई बात लिखने वाले
तमांचा रसीद :- चाँटा मारना
पैहम :- मुसलसल
तग-ओ-दौ :- कोशिश
आरज़ी :- कुछ दिन के लिये
मुसालहत :- समझौता
गुफ़्त-ओ-शुनीद :- बात चीत
शदीद :- सख़्त

--समर कबीर
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on July 17, 2017 at 6:41pm
जनाब विनय कुमार जी आदाब,सुख़न नवाज़ी के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
Comment by विनय कुमार on July 17, 2017 at 3:08pm

क्या कहूँ, आप को पढ़ना एक संगीत सुनने जैसा होता है, ढेरों बधाइयाँ आ समर कबीर साहब 

Comment by Samar kabeer on July 16, 2017 at 6:50pm
बहना कल्पना भट्ट जी आदाब,ग़ज़ल आपको पसंद आई लिखना सार्थक हुआ,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 16, 2017 at 4:40pm

आदरणीय समर भाई जी आपकी गज़लें लाजवाब ही होतीं है इसमें कोई शक नहीं है , आप कठिन शब्दों के अर्थ भी लिख देते हो जिस से समझना आसान हो जाता है आपको साधुवाद |

Comment by Samar kabeer on July 13, 2017 at 9:58pm
प्रिय भाई जनाब विजय निकोर जी आदाब,ग़ज़ल आपको पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ,ग़ज़ल में शिर्कत और दाद-ओ-तहसीन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रहज़ार हूँ ।
Comment by vijay nikore on July 13, 2017 at 7:51pm

//लगे हुए तो हैं पैहम इसी तग-ओ-दौ में
हमें वो देखिये किस दिन शहीद करते हैं

ये नफ़रतें तो महज़ आरज़ी हैं,सच ये है
यहाँ के लोग महब्बत शदीद करते हैं//

सोचता हूँ, आपके लेखन को, आपके ख्यालों को दाद देता हूँ... हमेशा की तरह।

पढ़ कर दिल खुश ही नहीं होता, कहीं और पहुँच जाता है।

आपको बधाई, भाई समर जी

Comment by Samar kabeer on July 12, 2017 at 10:34pm
जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब,इस ग़ज़ल का मतला मैंने 27साल पहले कहा था,पिछले हफ़्ते मेरे एक शागिर्द सुभाष सोनी ने मुझे सुनाया और इस पर ग़ज़ल कहने की फरमाइश की,उनकी फ़रमाइश पूरी करने के लिये ये ग़ज़ल कही जो आपके सामने है, अस्ल में ग़ज़ल के नाम पर बेतुकी हांकने वालों की तादाद में इन 27 वर्षों में बहुत इज़ाफ़ा हुआ है,उसी पस-ए-मंज़र में ये मतला कहा था,जो आजके हालात पर उस वक़्त से ज़ियादा सटीक है ।
ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
कृपया ऐसे ही मंच पर अपनी सक्रियता बनाये रखें ।
Comment by Samar kabeer on July 12, 2017 at 10:25pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on July 12, 2017 at 10:23pm
जनाब निलेश'नूर'साहिब आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on July 12, 2017 at 10:21pm
जनाब रवि शुक्ला जी आदाब,तक़रीबन एक हफ़्ते पहले मैं एक ग़ज़ल बह्र-ए-मीर में पोस्ट कर चुका हूँ,उसे भी देखियेगा ।
ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।

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