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'ये लहू दिल का चूस्ती है बहुत'

फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन/फ़ेलान

ज़ह्न में यूँ तो रौशनी है बहुत
पर जमी इसमें गंदगी है बहुत

इतना आसाँ नहीं ग़ज़ल कहना
ये लहू दिल का चूस्ती है बहुत

एक एक पल हज़ार साल का है
चार दिन की भी ज़िन्दगी है बहुत

चींटियाँ सी बदन पे रेंगती हैं
लम्स में तेरे चाशनी है बहुत

फ़न ग़ज़ल का "समर"सिखाने को
एक 'दरवेश भारती'है बहुत
---
लम्स-स्पर्श
समर कबीर
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Niraj Kumar on July 22, 2017 at 5:51pm

आदरणीय समर कबीर साहब आदाब, सबसे पहले तो आपको तकलीफ देने के लिए माफ़ी चाहता हूँ . लेकिन सवाल ऐसा था कि आप जैसे उस्ताद के सामने ही रखा जा सकता था. बहुत कम लोग अब ऐसे बचे है जो अरूज की गहरी जानकारी रखते हैं. बात को आपने जिस तरह साफ़ किया है वह आप जैसे उस्ताद के कद का ही हिस्सा हैं. मैं तहे दिल से आप का शुक्रगुज़ार हूँ.

उर्दू और फ़ारसी अभी सीखने कि कोशिश कर रहा हूँ. बमुश्किल पढ़ लेता हूँ. 

सादर  

Comment by Samar kabeer on July 21, 2017 at 10:59pm
जनाब नीरज कुमार जी आदाब,
//तो क्या 'फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ाइलातुन'पर लिखी गयी ग़ज़ल बहर के लिहाज़ से ठीक मानी जायेगी?//
मैं अस्ल में इस पर बात करने से कतरा रहा था क्यूंकि मैं ख़ुद नहीं लिख पाता बच्चे से लिखवाना पड़ता है,और बच्चे इतना लिखने से बचते हैं,लेकिन आपने 'यास'यगाना चंगेज़ी साहिब की किताब से ये मिसाल पेश कर दी तो मजबूरन और मख़लाक़न। मुझे इस पर अपनी बात कहने आना ही पड़ा ।
सबसे पहले तो आप ये बताइये कि आप उर्दू और फ़ारसी ज़बान पढ़ और समझ लेते हैं ? ये सवाल इसलिये पूछ रहा हूँ कि आपने जो हवाला पेश किया है वो उर्दू ज़बान में है, और उस हवाले में 'फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ाइलातुन'की मिसाल में जो मतला लिखा है वो फ़ारसी ज़बान में है ।

अस्ल में बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ के मूल अरकान यही हैं,और 'फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फेलुन/फाइलुन/फेलान'उसी से तोड़कर बनाये गए हैं और चूँकि ये बह्रें अरबी और फ़ारसी ज़बान से निकली हैं उर्दू में ग़ैर मारूफ़ हैं और इसकी मिसाल में उर्दू ज़बान का कोई शे'र पेश करना मुमकिन नहीं है क्यूँकि उर्दू वाले इससे वाक़िफ़ नहीं हैं तो हिन्दी वाले कैसे होंगे,इसलिये मैंने इससे इंकार किया था,कि जिसकी मिसाल में हम अपनी ज़बान का कोई शे'र पेश ही नहीं कर सकते उसका ज़िक्र ही क्यूँ करें ! ये एक इल्मी बहस है,और इसका सिलसिला कहीं ख़त्म नहीं होता,कौन इन उलझी हुई बह्रों में वक़्त सर्फ़ करेगा,लेकिन आप कह सकते हैं तो प्रयास कीजिये ,इसकी कोई क़ैद भी नहीं है,आज के दौर में लोगों को अरूज़ की थोड़ी सी भी शुद बुद हो तो बड़ी बात समझें,आज की ग़ज़ल फ़ारसी और अरबी ज़बान की बंदिशों को पसन्द नहीं करती उससे घबराती है, और अगर वो इन बंदिशों के साथ ग़ज़ल कहने पर तैयार भी हो जाये तो समझेगा कौन ? यहाँ हाल ये है कि 'शह्र'और "शहर" के वज़्न का ही फैसला नहीं हो रहा है उस पर अरबी और फ़ारसी ज़बान का अरूज़ कौन क़बूल करेगा ? और बफर्ज़-ए-मुहाल कर भी लिया तो उनकी तादाद कितनी होगी ? इसलिये बहतर यही होगा कि हम अगर बह्र-ए-ग़ज़ल कहें तो उसके जो मारूफ़ अरकान हैं 'फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फेलुन/फाइलुन/फ़ेलान' पर ही कहें,और अगर कोई'फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ाइलातुन'पर ग़ज़ल कहना चाहे तो ज़रूर मश्क़ करे,उम्मीद है आपकी तशफ़्फ़ी हो गई होगी ?
Comment by Niraj Kumar on July 21, 2017 at 5:18pm

आदरणीय समर कबीर साहब आदाब,  यास यगाना चंगेजी की किताब 'चिरागे सुखन' संयोगवश archive.org पर डाउनलोड के लिए मिल गयी :

http://https://archive.org/download/CharaaghESukhanRisalaEUroozOQav...

इस किताब में बहरे खफिफ की मुजाहिफ शक्ल 'फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ाइलातुन' का जिक्र है :

तो क्या 'फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ाइलातुन' पर लिखी गयी ग़ज़ल बहर के लिहाज़ से ठीक मानी जायेगी?

सादर 

Comment by Samar kabeer on July 21, 2017 at 11:22am
जनाब विजय निकोर जी आदाब,ग़ज़ल आपको पसंद आई लिखना सार्थक हुआ,ग़ज़ल में शिर्कत और दाद-ओ-तहसीन के लिए आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by vijay nikore on July 21, 2017 at 11:15am

//चींटियाँ सी बदन पे रेंगती हैं
लम्स में तेरे चाशनी है बहुत//.......

वाह ! सोचता हूँ, इतने अच्छे ख्याल ! तभी तो बार-बार पढ़ने को मन करता है। दिल से मुबारकबाद, भाई समर जी।

Comment by Niraj Kumar on July 20, 2017 at 7:19pm

आदरणीय समर कबीर साहब मेरे एक मित्र ने कहा था कि यास यगाना चंगेजी की किताब 'चरागे सुखन' में में इस का ज़िक्र है. ये किताब  मेरे पास नहीं है इसलिए आपको तकलीफ देनी पड़ी. स्पष्टीकरण के लिए शुक्रिया.

सादर 

Comment by Samar kabeer on July 20, 2017 at 6:51pm
जी नहीं होती है ।
Comment by Niraj Kumar on July 20, 2017 at 6:16pm

आदरणीय समर कबीर साहब आदाब,ये प्रश्न मैंने अपनी जानकारी के लिए पूछा था मेरा मतलब ये था कि बहर खफिफ की कोई मुजाहिफ शक्ल 'फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ाइलातुन'भी होती है क्या?

Comment by Samar kabeer on July 20, 2017 at 5:58pm
जनाब नीरज कुमार जी आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
आपने जो अरकान के बारे में प्रश्न किया है उसे स्पष्ट कीजिए कि ये इस ग़ज़ल के बारे में है क्या ?
Comment by Niraj Kumar on July 20, 2017 at 4:23pm

आदरणीय समर कबीर साहब आदाब, ग़ज़ल का हर शेर दाद के काबिल है, बहुत बहुत मुबारकबाद. इस बहर (खफिफ) में 'फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ाइलातुन' ये अरकान भी होते हैं क्या ?

सादर 

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